Tuesday, September 8, 2015

भेद

चंपकवन के बीचोंबीच एक सरिता बहती थी। उस सरिता के एक तरफ के जंगल पर गीदड़ों का राज्य था।
गीदड़ों के रोज रात को हू हू करने पर पूरे जंगल और उसके आस पास के इलाकों में उनकी ख्याति संगीतज्ञ और कला प्रेमियों के रूप में भी हो चली थी। आस पड़ोस के जंतु यह मानने भी लगे थे कि यदि कहीं स्वर्ग है तो यहीं इसी गीदड़ों के साम्राज्य में।

उसी सरिता के ऊपर की तरफ , लेकिन दूसरे तट से परे हट कर शेर राज करते थे। कई बार वहां से हलकी दहाड़ की ध्वनि आती , लेकिन उससे जंतु थोड़े भयभीत और थोड़े अनमने ही रहते।
एक दिन एक शेरनी ने एक शावक को जन्म दिया। बच्चा जब कुछ दिनों में चलने योग्य हो गया तो पानी पीने सरिता के पास पहुंचा। लेकिन पानी पीते हुए उसके पैर फिसल गए और वो सरिता में गिर पड़ा। वह छटपटाया कि तट पर आ सके , लेकिन बहता हुआ दूसरी तरफ , सरिता के नीचे चला गया।
वहाँ उस पर एक गीदड़ की दृष्टि पड़ी और वो उसे दांत में दबा कर धीरे से उठा कर राज्य में लेता आया। बच्चे शेर ने देखा , दरबार में हू हू का गायन पूरे उल्लास से चल रहा था।
बच्चे ने पूछा- "चाचा जी, ये क्या हो रहा है?"
गीदड़ बोला -"यहाँ हम लोगों के हाथों आज एक मरा हुआ हाथी लगा है , उसी का जलसा है। "
गीदड़ आगे बोला - "तुम्हें यहाँ हम शिकार करना सिखाएंगे। तुम्हें करना ये है कि जैसे कोई जानवर देखो, उसके पीछे लग जाओ। अगर वो धीरे चलता हुआ लगा, तो शायद बीमार भी होगा।  अगर उसकी मृत्यु हो गयी, तो हमारी तरह गाने लगना। फिर हम सब जमा हो जायेंगे और उसको घसीट के यहाँ लेते आएंगे। "
"और अगर जानवर नहीं मरा तो ?" - बच्चा उत्सुक हो गया।
"तो फिर कोई दूसरा जानवर मारेंगे , लेकिन याद रखो, हर दिन एक जानवर का शिकार ज़रूरी है। "
"लेकिन ज़रूरी तो नहीं की हर रोज़ एक जानवर मरे ही। "
"लेकिन अगर रोज़ जानवर नहीं लाओगे तो गीदड़ राजा से डांट भी पड़ेगी और उनकी सभा में अपमानित भी होना पड़ेगा। एक बार उन्होंने ऐसे ही एक गीदड़ को शिकार में बार बार खाली लौटने पर राज्य से निष्कासित कर दिया था। ओह बेचारा कहाँ जाता इतनी समृद्ध जगह छोड़ कर।  आज भी बेचारे के लिए दया ही आती है। "

सोच कर बच्चे के माथे पर बल पड़ गए।  अच्छी मुश्किल थी, शिकार मरेगा ही, इसका क्या भरोसा।
अगले दिन से छोटे शेर ने अपना दिमाग चलना शुरू किया। एक हफ्ते के आराम के बाद उसे भी शिकार पर ले जाया गया। उसे उस दिन एक बकरी का छौना मर हुआ मिला।
उसने अपनी ओर से गाने का प्रयास किया, किन्तु उतना माधुर्य न ला सका जितना बाकी गीदड़ लाते थे।

खैर, गीदड़ सुन के आये, और शिकार उठा कर ले चले। बच्चा अपने पहले शिकार के लिए बधाई चाह रहा था।  झटके से उसकी सोच टूटी , देखा, गीदड़ों का राजा उसे डांट रहा था - "इतना छोटा शिकार? इससे क्या होगा? और तुम्हें गाना नहीं आता? अगली बार ध्यान रहे!"

बच्चे का डर सच जैसा हो रहा था।  यहाँ पर जल्दी ही कुछ और करना होगा , वरना दाल नहीं गलेगी।
उसे उस दिन एक जोड़ा खरगोश मरे हुए मिल गए, और उसने अपने साथी से कहा, गा के बताओ, मैं सीखूंगा।  उसके साथी ने गाया, और बाकी गीदड़ आये, और खरगोश उठा के ले गए। उस दिन के अंत में गीदड़ राजा ने साथी गीदड़ की पीठ थपथपाई - "तुम्हारे गाने का अंदाज़ निराला था , निस्संदेह, इस जानवर की खोज का सारा श्रेय तुम्हें ही जाता है ! हम सभी को तुमसे आशाएं हैं !"
शेर का बच्चा भौंचक सा रह गया। गाना इतना महत्त्वपूर्ण है, शिकार खोजने से भी ज्यादा, ये उसको पता ही नहीं था!उसने सोच लिया कि वो भी गायेगा और शिकार का श्रेय लेगा।
शिकार का स्वाद उसे अच्छा नहीं लग रहा था।  ठन्डे मांस में सुख नहीं मिल रहा था , लेकिन जब सारे ही उत्कंठित हैं, तो ज़रूर यही सही होगा।
शेर अब अकेला जाने लगा और उसने अलग अलग तरीके भी ईजाद करने शुरू कर दिए, मसलन, कभी घात लगा कर अपने पंजों और दांतों से जानवर घायल कर देना, और छोटे जानवर जैसे बकरी, सूअर के बच्चे, इत्यादि को मार कर ले आना।  सब सही, लेकिन दो दिक्कतें थीं,गीदड़ राजा से बार बार निराशा मिलती थी,एक तो जानवर छोटे थे, कभी मिले तो कभी नहीं मिले, और दूसरे कि गण बड़ा ही बेसुरा था।
गाने की कमज़ोरी के कारण शेर के साथ एक गीदड़ मित्र भी रख दिया गया। गीदड़ जाएगा, जब शेर शिकार करेगा।
शेर ने फिर एक शिकार किया , गीदड़ गाया और टोही दल आ कर शिकार ले गया। राजा गीदड़ ने मित्र गीदड़ की भूरी भूरी प्रशंसा की कि किस भाँती उसने अपनी कला से शिकार को अंजाम दिया।
शावक गीदड़ को फिर से डांट पड़ी क्योंकि एक सूअर बहुत बड़ा नहीं था, अतएव बहुत लोगों का पेट नहीं भरेगा।

कुछ महीने बीत चुके थे, और छोटा शावक थोड़ा बड़ा हो गया था। वह बड़ा ही उदास रहने लगा था।  उसे हमेशा डर रहता था कि आज शिकार कैसे मिलेगा। अगर मिला तो बड़ा जानवर कैसे मारें, और उसको शाबाशी कब मिलेगी , अपनी मेहनत का पुरस्कार कब मिलेगा। अभी कुछ दिनों पहले की बात थी, उसने एक भैंसे को एक ही वार में चित्त कर दिया था।  लेकिन गीदड़ राजा की शायद समझ नहीं आया की एक पंजे में चित्त कर देने में कौन सी बहादुरी है , अतः उन्होंने बिना जाने बड़ाई नहीं की।  कला प्रेमी होने के कारण उनके कान संगीत को भली प्रकार समझते थे और इसलिए बाकियों की तारीफें भी करते थे, भले ही उन्हें शिकार रोज़ मिले या नहीं। क्योंकि उन्हें गाने का लहज़ा पता था। शावक को इस बात का बेहद मलाल था कि  चाह के भी उसे गाना नहीं आ पा रहा था।
दूसरों की लार लगी हुयी जूठन खाने में सुख नहीं था, और अपमानित होने में तो बिलकुल भी नहीं। अगर रोज़ भोजन लाने पर ये हालत है, तो किसी दिन शिकार ना मिला तो क्या होगा, इसकी चिंता उसे खाए जा रही थी। जंगल छोड़ कर जाएँ भी तो कहाँ? यह जंगल काफी समृद्ध था, और आस पड़ोस के जीव भी वहां के निवासियों को बड़ी आदर मिश्रित भय की दृष्टि से देखते थे। वैसा सम्मान उसे किसी और जंगल में भला मिल सकता था ?
इसी उधेड़बुन में एक दिन वह चलता हुआ सरिता के ऊपरी हिस्से पर चला गया। उस दिन वहां एक बाघ पानी पीने आया हुआ था।
उसने देखा, एक शेर दूसरी तरफ खोया खोया चल रहा है तो उसने आवाज़ दी। छोटे शेर ने देखा, बाघ बोल रहा था।  उसे बड़ा अचरज हुआ कि उसकी बोली बहुत बेसुरी नहीं है, और भी जंतु हैं जो बराबर ही हैं !
बाघ ने उससे पूछा - "तुम यहाँ क्या कर रहे हो?"
शेर बोला "बहता हुआ चला आया था। "
बाघ बोला -"अरे! तुम हमारे जंगल के हो, वहां गीदड़ों के बीच क्या कर रहे हो! इधर आओ!!"
"लेकिन वहां बड़ी समृद्धि है!"
"कैसी समृद्धि? तुम शेर हो, और यहीं शोभा देते हो। मरे हुए जानवर खा के रिरियाने में कौन सा सम्मान है? क्योंकि शेर उस तरफ आते नहीं, इसीलिए बाकी के जाहिल जानवरों को ये गीदड़ ही महान लगते हैं!"
"क्या, सच?"
"तो और क्या!"
"मैं वहाँ आ जाऊं?"
"तुम्हारी उचित जगह यही है "
शावक भी उस जीवन से उदास हो चुका  था , और वो उस दूसरे जंगल को देखने को भी उत्सुक था जहाँ बाकी सब भी उसी के जैसे थे। किंतु सरिता में तैरना अभी भी बालक को नहीं आता था। उसने तुरंत एक युक्ति सोची।वह थोड़ा और ऊपर चला गया और सरिता में कूद गया. इस बार, उसने हाथ पाँव चलाये और वेग के साथ बहता हुआ थोड़ा आगे जा कर दूसरे  तट  पर आ लगा।  इस भाँती नन्हे शेर ने सरिता वापस पार की और अपनी तरह के जंतुओं के बीच रहने लगा।
उसको यह सब जान कर ख़ुशी हुयी कि बाज़ जानवर यहाँ अपना शिकार खुद करते हैं, और रिरियाने के बजाये दहाड़ते हैं। उस जंगल में उसके अपने ईजाद किये हुए घात लगाने की विधि को सराहा गया।
उस शेर ने उस जंगल में अपने दिन बड़ी उमंग और इत्मीनान से गुज़ारे।

शिक्षा: १. गीदड़ों से गर्जन को सराहने की अपेक्षा मत करो।
२. अगर कड़ी मेहनत से भी परिणाम न आये तो नयी दिशा से मेहनत करो

Tuesday, December 4, 2012

सहज मित्रता

एक गधा एक दिन अपने मालिक से तंग हो कर जंगल में भाग आया। जंगल में हरी और मजेदार घास का स्वाद अच्छा लगा तो वहीँ लोटने भी लगा।
इतने में एक गिलहरी उसके बगल से गुजरी। ऐसा जानवर उसने कभी नहीं देखा था। सोचा, मुलाकात की जाये। पेड़ पर चढ़ कर थोड़ी दूरी बनाते हुए उसने लोटते गधे को आवाज़ दी। गधे के चारों पैर ऊपर। बीच से गर्दन निकाल कर देखने लगा। गिलहरी पूछ रही थी- तुम्हारा नाम क्या है?

गधे ने बताया- गधा। गिलहरी ने देखा, गधे के खुर हैं, इसलिए वह पेड़ पर नहीं चढ़ सकता।
थोड़ी नीचे आ कर गिलहरी ने गधे की कहानी सुनी, और उसे पता चला की नए होने के कारण गधे का कोई मित्र नहीं था। गधे को प्यास लगी थी, तो गिलहरी ने नाले का पता बताया। गधा खुश हो गया -
"मैं प्यास बुझा कर फिर आता हूँ, फिर आगे बात होगी।"
"लेकिन संभल कर जाना, वहां आम के पेड़ पर एक लड़ाकू बन्दर रहता है।"
"झगड़ालू  बन्दर?"
"हाँ, उसकी सभी जंतुओं से लड़ाई होती रहती है। अभी सूअर की पूंछ नोच ली, जब वह वहां पानी पीने गया, जबकि सूअर उसका दोस्त था।"

गधा सतर्क हो कर नाले से पानी पीने चला। इसके पहले तो मालिक ही पानी देता था, यहाँ इस खतरनाक बन्दर से बचते हुए पानी पीना पड़ेगा, ऐसा तो सोचा नहीं था।

चलते हुए नाला आ गया, और गधे ने जी भर कर पानी पिया, और वापस आ ही रहा था की उसको एक गौरैया मिली। गौरैया ने पहचान करने के पश्चात् पूछा- कहाँ से आ रहे थे?
गधे ने बताया - "अभी नाले से प्यास बुझा के और लड़ाकू बन्दर को दोस्त बना कर लौट रहा हूँ।"
गौरैया ने कहा - "उसकी किसी से नहीं बनती।"
"गिलहरी भी ऐसा वृत्तान्त बता रही थी।" फिर गधा गौरैया को गिलहरी से हुयी बात बताता चला गया।
"आम वाले बन्दर की आदत है, शुरू में दोस्ती करता है, फिर लड़ना शुरू कर देता है। उसने सब के साथ ऐसा ही किया है।"
"ये मैं उससे मिलते ही समझ गया था।", गधे ने कहा, "जितनी आतुरता से उसने मेरा इस वन में स्वागत किया, बातों ही बातों में ये पता चला की वो भी मित्रहीन है, समझ में आ गया कि इसका स्वाभाव ही इसका शत्रु है।"

"कैसे?"

"उसने खुद ही बताया कि  सूअर उसका मित्र होता था। लेकिन वह गन्दा रहता था। उसने सूअर को कई बार कहा था कि सफाई रखे, लेकिन सूअर उसके पेड़ से अपनी पीठ रगड़ के उसका पेड़, और नाले का तट मैला करता रहता था। एक दिन उसने उसे नोच खसोट कर भगा दिया।"

गौरैया  बोली - "वो सही कह रहा है, ऐसा ही हुआ था। सूअर ने भी ऐसा ही कहा था। उस बेचारे की समझ ही नहीं आया कि उसने ऐसा क्या कर दिया।"

"मेरी समझ में यही बात आई", गधे ने जवाब दिया, "कि बन्दर मित्रता जल्दबाजी में करता है। और जब उसके मित्र स्वतंत्रता का उपभोग करते हैं, अथवा अपने असली व्यक्तित्व को दर्शाते हैं, तो वो चिढ़  जाता है।"

"और इस बात की क्या विश्वसनीयता है कि तुम उसके शत्रु नहीं बनोगे?"

"ये, की मैं अपनी पीठ किसी और के पेड़ पे नहीं रगड़ता, और न ही मैं अचानक हुयी गहरी लगने वाली दोस्ती में स्वतंत्रता का उपभोग करता हूँ।" कह कर गधे ने गौरैया से विदा ली।



शिक्षा: तुरंत गहरी मित्रता करना शत्रुता को न्योता देना है।

Friday, January 14, 2011

केंचुल

अम्बुज के दंतमंजन का नाम अम्बुजा नहीं था, किन्तु उसके जीवन के दो ही ध्येय मेरी समझ आते थे - स्वयं को एक दंगाग्रस्त जिले जहानाबाद का निवासी साबित करना, और स्वयं को ब्राह्मण घोषित करना।

इस कहानी का नायक अम्बुज, और खलनायक राका, पूरी तरह से मेरी कल्पना कि पैदावार हैं। असली राका और अम्बुज से इनका दूर दूर तक कोई नाता नहीं है, और ये कहानी अम्बुज के पहले ध्येय से सम्बंधित है।

राका उस दिन बड़ा खुश सा दिख रहा था। अम्बुज की जहानाबाद की शौर्य गाथाएं हम सभी को अब याद हो चली थीं, की कैसे हाथी उसके द्वार पर झूमा करता था, और कैसे उसके बड़े पापा घोड़े पे दुनाली लेकर घूमा करते थे। और कैसे उसके बीघे के बीघे खेत नक्सल वालों ने हड़प लिए। अम्बुज की नसों में क्षत्रियों का लावा और ब्राह्मणों का तेज रहा होगा, ऐसा विश्वास मुझे हो चला था। लेकिन ज़िन्दगी आपके हर विश्वास को मिथ्या साबित करने पे आमादा होती है।

आर्य पुत्र राका की प्रसन्नता का सबब ये था-

पिछली शाम को राका अपने निवास नेहरु छात्रावास से पटेल छात्रावास तक गया, ताकि अम्बुज से मिल सके। वहीँ दोनों का कार्यक्रम कुछ ऐसा बना की आज़ाद हाल के सामने से हो कर टेक मार्केट तक जाने का मन बन गया।

वह गली पेड़ों से भरी हुयी थी, और शाम के धुंधलके में और भी धुंधली दिखती थी- ऐसा मेरे चश्मा ग्रस्त मित्र- राका और अम्बुज, दोनों का कथन रहा था।
बातों का केंद्र बिंदु ज़रूर ही कोई ऐसी बात रही होगी जिसमें अम्बुजवा को अपना पराक्रम दिखाने की इच्छा हुयी होगी। अम्बुज उवाच रहा था- मेरे को कम मत समझना- मय गाँव में बहुत सांप घुमा घुमा के फेंका हूँ, यूँ यूँ कर के। सड़क पर चलते हुए अम्बुज अपने दोनों हाथों से कपड़े घुमा कर धोते धोबी जैसे इशारे कर के समझा रहा था। तभी सड़क पे कुछ चमकती काले रंग की रस्सी सी दिखी। कहना मुश्किल हो सकता है की सांप ही रहा हो, लेकिन इंसान का डर उसे सच्चाई नहीं देखने देता, ख़ास तौर पर तब जब आँखों पर मर्तबान के शीशे के नयन ज्योत लालटेन चिपके हों। मनो अम्बुजवा को सांप सूंघ गया- कूद कर राका के दायें बाजू पकड़े काँपता रहा- "सांप? क- कहाँ है सांप!"
खीसें निपोरता अम्बुज सुन रहा था। चश्माधारी लाल बन्दर अपनी दुग्धधवल श्वेत दंतपंक्ति दिखाते हुए इतना ही बोल सका- "अईसा नहीं है... अरे, ऊ सांप नहीं, केंचुआ था जो हम खेत में नचाते थे। "

Wednesday, July 21, 2010

गूंगा कुत्ता

जब मैं अपने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान बम्बई वाले दोस्त के घर पहुंचा, तो देखा, उसका कुत्ता नहीं दिख पड़ रहा है। मैंने उससे पूछा- दोस्त अपना टॉमी नहीं दिख रहा?
उसने मुस्कुराते हुए कहा- मित्र, मैंने उसे अपने गोरखपुर वाले चाचा को वापस दे दिया...
उत्कंठा से ग्रसित हो मैंने भी वजह पूछ ली। फिर उसने कहानी बताई-

उसने कहा- तुम्हें तो पता ही होगा कि मेरे चाचा जी ने वो कुत्ता हमें तोहफे में दिया था। लेकिन वो बेचारा अनबोलता था।
मैंने भी झूठा अफ़सोस ज़ाहिर किया- बेचारा!
उसने अफ़सोस को स्वीकार कर के आगे कहा- वो अपनी दुम भी कम ही हिलाता था। हमें लगता था शायद जर्मन शेफर्ड ऐसे ही होते हों, तो हमने भी उसे अपना रखा था।
ऐसी ही एक रात, हमें यह लगा कि कोई कुत्ता अपने घर में चीख रहा है। शायद कोई चोर- चमार घुसा आया हो, ऐसा विचार कर के हम लोग लट्ठ और बत्ती ले कर बाहर निकले। देखा, टॉमी किसी जंगली कुत्ते की गर्दन में अपने दांत गड़ाए है, और कुत्ता बिलख रहा है। जैसे तैसे कुत्ते को छुड़वा के भगाया।
टॉर्च की रोशनी में अभी भी टॉमी की हरी आँखें अंगारों जैसी चमक रही थीं। हमें तब यह विचार चमका कि कहीं यह भेड़िया तो नहीं!
आगे मेरे दोस्त ने कहा- अपने चाचा से पूछने पर उन्होंने - शिकार के दौरान यह मिला था जंगल में। हम तो वहीँ से पकड़ के लाये थे। बस, हमने उसे तुरंत ही वापस उन्हें सुपुर्द कर दिया।
मेरा दोस्त बोला- "वही मैं कहूँ कि वो गाजर क्यों नहीं खाता था। उसके लिए ख़ास तौर पर मांस पकाना पड़ता था, जबकि हम सभी शाकाहारी हैं।"

शिक्षा: ठगे जाना भी हमारी ही ज़िम्मेदारी है

Monday, June 14, 2010

मेरी पगली: भाग 35 का 5

हम दोनों के मिलने का दिन बुधवार होता था, अगर आपको याद हो। [अगर आप न पढ़ें, तो मैं ये किस्से किस के साथ शेयर करूँगा ]

तो बुध को उसकी क्लास नहीं होती थी, और मैं तो... खैर, ये सब तो पिछली बार ही बता चुका... लेकिन अब बुधवार कि क्लास जाने किस मुंह से जाऊं, सो नहीं जाता। और बुधवार को इसके धमकी भरे फ़ोन आते हैं- १० मिनट में आ, वरना तेरा मर्डर कर दूँगी"... मैं मरना नहीं चाहता, सो १० मिनट में अपनी जान बचा लेता हूँ... जैसे- "मैं शिन- दो- रिम स्टेशन पे हूँ... आधे घंटे में आ जा!"
मैं शिन दांग में रहता हूँ। आधे घंटे में लोकल पकड़ के भी नहीं पहुँच सकता- टैक्सी करनी पड़ी; सारे पैसे फुंक गए! जब पहुंचा तो देखा, सोजू की एक बडी बोतल लेकर खड़ी है। दारुबाज़। सोचता हूँ, अगर मैं लेट करता तो क्या करती ये? सारी पी जाती क्या? खतरनाक आईडीए को सोजू पी कर रफा- दफा किया।

तो हर बुधवार जैसे ही इस बार भी इसने मुझे जाम- शिल स्टेशन के पास बुलाया था। मूड ज़रूर अच्छा रहा होगा, तभी "चल, तुझे आधा घंटा दिया" बोल के फ़ोन पटक दिया। तीस मिनट। अगर तेज़ तेज़ चलूँगा तो आज लोकल से ही पहुँच जाऊंगा... वाह
उसको लॉट्टे वर्ल्ड जाने का जी कर रहा था। टिकट के पैसे उसी ने दिए और दिन भर का पास बनवा लिया। खाने में मैंने दो बर्गर ले डाले।

बाज़ लड़कियां अम्यूजमेंट पार्कों में डरने का ढोंग करती हैं, और मैं ऐसा ही कुछ सोच रहा था, या कहें, चाहता था। लेकिन कुछ बाज़ लोगों के लिए झूला बस खिलौना होता है। खिलौने से उन्हें डर नहीं लगता- उनके तेवर रहते वैसे ही हैं- बेख़ौफ़।
सुक्चोन झील के किनारे शाम घिर सी रही थी, और सड़क के साथ की बत्तियां भी जलने लगी थीं। कभी इस इलाके में लोग आने से डरते थे, क्यूंकि यहाँ गुंडे और बदमाश नेचर वाले दुष्ट घूमते थे, अब उनको प्रेमियों ने रिप्लेस मार दिया है। इन तोता- मैनाओं के साथ हम भी एक बेंच पर जा टिके। जाने इसको क्योंकर बियर पीने का मन हो आया। मुझे इसके साथ कुछ नहीं पीना। ड्रामेबाज़ है। लेकिन बियर तो इसके लिए कोला जैसी है। दो बियर की कैन और झींगा के पकोड़े ले कर इसने गुज़रते हुए एक भाई साहब को पकड़ा- "ओये! तूने लाल शर्ट क्यों पहनी है? तुझे बताया किसने की लाल तेरे ऊपर फबता है!"
"तुम्हें इससे क्या? पागल!" - मैं बेंच के पीछे छुपा ये एक्शन ड्रामा देख रहा था।
उसे लडाई झगडे से कुछ ख़ास मज़ा सा नहीं आ रहा था। अचानक उसने झील की ओर मुंह फेर लिया और झील की शांति निहारने लगी। शायद उसे अपना बॉयफ्रेंड याद आ रहा था। फिर से आंसू बहाने लगी- शायद उसके अन्दर की कमजोरी उसकी ताकत को हरा कर आंसू बन कर बहार उमड़ने लगी थी। लगा कि कहीं झील में कूद ही ना जाये, तो मैं उसके बगल में आ कर खड़ा हो गया। बोली- "झील कितनी सुन्दर है ना? काश मैं इसकी तली में जा सकती!" एक डर सा लगा और अगले ही पल मैंने अपने चारों तरफ पानी सा देखा, पाँव के नीचे भी पानी।

मैं डूब रहा था, और मैं तैराक भी नहीं हूँ। लोग खड़े देख रहे थे, लेकिन कोई बचा नहीं रहा था। सुक्चोन झील जितनी दिखती है, उससे ज्यादा गहरी है, ये उस दिन पता चला, उस पानी के काले रंग में मैं हाथ पाँव मार रहा था, और वो खड़ी अपलक देख रही थी।
"मैं देखना चाहती थी कि झील कितनी गहरी है!"

"मुझे चाकू घोंप कर चाकू कि धार देखोगी?" मन में ऐसा विचार सा कौंधा, लेकिन इतना बोलने के लिए हिम्मत कि बोरी चाहिए।
किसी तरह रेंग कर मैं बाहर निकला। पुलिस को किसी ने ११२ पर खबर दे दी थी, और वो सायरन का सुर साधती वहां आ धमकी थी। फिर इन्स्पेक्टर से २ घंटे का मुफ्त का ज्ञान।
चुपचाप खड़ी बगल में सर हिला रही थी। ज्ञान के तीर मेरे ऊपर मारे जा रहे थे।

बाद में मैंने पूछा- "म- मैं म-म-मर जाता तो?"
वो बोली- "साले मर्द कुत्ते होते हैं!"
मैं वापस मूक हो गया। गुस्सा भी नहीं हुआ जा रहा था उससे। अफ़सोस आता था- कभी तो उबर सकेगी अपने दुःख से।

अगले दिन अखबार में एक छोटी सी खबर छपी- "प्रेमिका से अज़ीज़ आ कर प्रेमी ने की ख़ुदकुशी की कोशिश"।

(क्रमशः)

Monday, October 19, 2009

मेरी पगली: भाग 35 का 4

ताज़ा ख़बर ये है की मैं भी अब उससे तू- तड़ाक से ही बातें करने लगा हूँ। हुआ यों था:

मैं: त-तुम्हें मेरी उ- उम्र कितनी लगती है? (मैं तो अब भी डर ही रहा था)
"ये ऐसी कौन सी ज़रूरी बात है जो मैं जानूं?" उसने मेरी ओर आँखें तरेर कर कहा।
"मैंने देखा है, तुम '76 की हो। मैं तुमसे एक साल बड़ा हूँ। और इस नाते तुम्हें मुझसे इज्ज़त से पेश आना होगा।", काश, मैं ऐसा धमाका कर पता।
"म- मैं क्या कह रहा था... मैं सोच रहा था... शायद तुम '76 की हो... ऐतराज़ हो तो नहीं भी हो सकती हो... लेकिन अगर हो... तो मैं तुमसे एक साल बड़ा हो सकता हूँ...."
"अच्छा! तो तू भी मुझे तू बुला सकता है, इसमें ऐसी कौन सी बात है!"

और इस तरह मुझे उसे तू कहने का लाइसेंस मिल गया। अजीब सा नहीं है क्या? मिले हुए इससे दो दिन और तीन रातें हुयी हैं, और जिनमें दो रातें हमने होटल में बितायी हैं, एक साथ, एक ही कमरे में!

वो किसी यूनिवर्सिटी में पढ़ती है, जहाँ उसका बुधवार "ऑफ़" होता है। मेरी छुट्टी गुरू को होती है।

अभी इस बुध को उसका जी नहीं लग रहा था, कुछ करने को नहीं था, तो मुझे फ़ोन लगा डाला। मैं क्लास में बैठा उकता रहा था। मैंने उसको समझाने की कोशिश की कि एक खड़ूस प्रोफेसर कि क्लास जो दोपहर बर्बाद कर देती है, उसमें मुझे अचानक से बड़ा मज़ा जैसा कुछ आने लगा है। लेकिन मैं उसके रहते मज़ा कैसे लूँ... उसने धमकी दे दी कि वो मेरे कॉलेज आ रही है, और मैं उसको रोक नहीं सका।
लंच के बाद 2 30 की झपकी आई ही थी की धड़ाक से दरवाज़ा खुला। अक्सर जब लड़के लेट से आते थे तो पीछे के दरवाज़े से चुपके से दाखिल हो जाते थे, ये कौन हिम्मतवाला हो आया था जो सामने के दरवाज़े से ही... सबने उधर देखा... हंटर वाली ही थी- "ये कैसा कॉलेज है! क्लास रूम मिलते नहीं कभी!" इस विवेचना के साथ वो घुसी। मेरे होश ही उड़ गए। मैं सोने और इधर उधर लोटने की एक्टिंग करने लगा, आँखें मीचे छोटे बच्चे जैसा, जिसको दुनिया नहीं देख पाती है! लेकिन उसके चाप बता रहे थे की वो मुझे देख भी रही थी, और मेरे पास भी आ रही थी। उसको कैसे पता चला की वो आँखें मीचे मैं ही हूँ? अचम्भा है न! अगर मैं उसको नहीं देख पा रहा तो वो भी मुझे नहीं देख सकती होगी, ऐसी उम्मीद फ़ेल होती दिख रही थी.....

मेरा सारा जेब खर्च खाने और दोस्तों के साथ पीने की भेंट होता। इसीलिए मेरे पास एक ही शर्ट और पैंट थी, और जब भी मैं मिलता था, वही पहने होता था। उसी से पहचाना होगा। भक! मेरे दोस्त... दारू... और ये दुनिया..... कहाँ भागूं जहाँ मुझे इस हाल में किसी ने न देखा हो... उसको मेरे पास ही बैठना था।

नया सेमेस्टर था इसीलिए प्रोफ़ेसर सब को नहीं जानता था। वो सोच रहा होगा की कोई क्लास की ही लड़की होगी....
....और यहाँ बाकी लोगों में करंट सा दौड़ रहा था! सारे दाएं बाएँ की बातें ही कर रहे थे:
"नई चिड़िया है क्या?"
"लगती तो है!"
"खतरनाक खूबसूरती है!"
"अपने कॉलेज में ऐसी सुंदर लड़कियां कब से आने लगीं?"
"हा... इसीलिए ताकि मैं इस क्लास में आ सकूँ!"
मेरे पीछे वाले ने पेन्सिल घोंप के फुसफुसाया "अबे, तेरे बगल वाली तो कुछ धमाका है! क्लास के बाद इसका पता ठिकाना पता करें क्या?"
"गधे...." मैंने सोचा। अभी जब ब्रेक में ये मुझे घसीटती हुयी ले जायेगी, तो उसके ब्वायफ्रेंड के नाम से फेमस होते मुझे दो सेकंड भी नहीं लगेंगे। काश ये बीस मिनट बीत जायें और ब्रेक में मैं चुपके से खिसक सकूँ! और ये मेरे क्लास वाले इस बीस मिनट को और लंबा बना रहे थे....

ब्रेक हुआ। मैं झटपट उठ के भागने लगा। उसने मेरा पीछा किया, और बोली- कहीं किनारे चल के बातें करते हैं!
क्या मुसीबत है!

मैं वैसे भी कोई देश का होनहार नौनिहाल नहीं हूँ। और ये खड़ूस मास्टर सीधे डी और ऍफ़ देने के लिए मशहूर था।

इमानदारी से उसको समझाने की पूरी कोशिश की कि मैं ये क्लास को अलविदा नहीं मार सकता, चाहो तो मार ही डालो! उसने भी कहा " ठीक है!" और बैठ गई।

दस मिनट का ब्रेक ख़त्म हो चुका था... वो क्लास में नहीं आई थी। चली गई या बाहर मेरा वेट कर रही है...?
सोच की धारा प्रोफ़ेसर ने तोड़ी- " ग्युनवू, तुम आज जा सकते हो, तुम्हारा अटेंडेंस मैं लगा दूँगा।"
"ल-लेकिन क्यों?"
"वो तुम्हारी गर्लफ्रेंड थी न?"
पूरी क्लास में सुई पटक सन्नाटा। वो सबके आंखों की भौचक जलन मुझे एक क्षणिक "प्राइड" दे रही थी। लेकिन इसने मास्टर को ऐसा कहा क्या होगा, जो इसने मुझे छोड़ दिया? खैर, सामान ले कर बाहर आया तो देखा, वो इंतज़ार कर रही थी।

"तूने उसको ऐसा कहा क्या जो वो मान गया?"
उसने खुलासा किया, "... ये की मैं अबोर्शन कराने जा रही हूँ, और बच्चे का बाप तू है!"
पैरों के नीचे से ज़मीन की चादर किसी ने खींच दी! कोई और ये बताता, तो शायद मैं न मानता.... इसकी हिम्मत का फौलाद एकदम मानना ही होगा।
मुझे कहीं का न छोड़ा इसने! मेरी कैम्पस लाइफ की तो मौत ही हो गई..... अब मैं उस क्लास में ऍफ़ लेना चाहूँगा, और जाने की कोई इच्छा नहीं बची है। सुनने में आया की जब लड़कों ने मुझे छोड़े जाने पर नाक भौं सिकोड़े तो प्रोफ़ेसर ने उनको उस वजह की मुनादी पीट दी। सोने पे सुहागा।
मेरी सहपाठी लड़कियां अब मुझसे कतराने लगीं, वो युन्गमी, जो मुझे नक्शे बनाने में हमेशा मदद करती थी, वो भी दूर भागने लगी थी, मुझे कामांध कमीना समझती थी। हालात ये थे की जिस भी कक्षा में मैं जाता, लोगों की कहानियाँ और दंत कथाओं का विलेन मैं होता।
मिलिट्री में दो साल बिताने के बाद कॉलेज में दाखिला लिए दो महीने ही बीते थे की मेरा हुक्का पानी बंद सा हो गया था। और ये छुआछूत तो बस तकलीफ मात्र थी, क्योंकि आगे जो हुआ वो दर्दनाक था।

ओह हाँ, और ये बताना श्रेयस्कर होगा की उस कोर्स में मुझे बी मिला। लोग अब और भी जलने लगे थे। मेरे दोस्त ने बताया था की उस बार 120 में सिर्फ़ एक को ही ऐ मिला था। उसके बाद "मेरी सिचुएशन को देखते हुए" पूज्य गुरू जी ने मुझे बी देने का निश्चय किया था, जो पहले कभी ना हुआ था, न आगे ही कोई और कर सकने का हौंसला रखेगा।

मैं कॉलेज का "लेजेंड" बन चुका था....

Friday, October 16, 2009

मेरी पगली: भाग 35 का 3

अगर आप सोचें तो आप भी उसकी बहादुरी की दाद दिए बिना न रहेंगे। वरना सोचिये, आप हों शराब के नशे में धुत, किसी अजनबी के संग होटल में रात बिताने के बावजूद आप उसे कॉल शायद ही करें।

तो उठते ही उसने मुझे फ़ोन मिलाया... शायद उसे भी सब कुछ पूरी तरह याद नहीं था। अच्छा है, कभी कभी बुरी याददाश्त ही अच्छी।

मैं: हेलो?
"कौन है तू?" उसने दहाड़ मारी (मैं उतनी देर से उसकी बहादुरी के बारे में बता रहा था न, क्यों?)
मैं: कौन? मैं समझा नहीं?
"तूने अपना नम्बर छोड़ा था, मैंने इसीलिए कॉल किया। यहाँ आ। अभी!"
मैं डरता हुआ होटल पहुँचा। वो लड़की बाहर ही इंतज़ार कर रही थी। थोड़ा डर सा लग रहा था, मानो उसको कल रात का याद रहा तो? नहीं होगा याद! पी के आउट थी!! और मान लो जो याद रह ही गया तो...?
और तब..."सूअर! तुमने मेरे साथ क्या किया है? कमीने! रुक जा! मैं पुलिस बुलाऊंगी..."

"ज़रा सुनिए?", बोल फूटे।
"अच्छा! तो वो तू है?" [तू! तू तड़ाक से ही शुरू की है, बदज़बान]
"ह- हाँ, मैं ही हूँ, लेकिन आप तू करके कैस..."
"अच्छा अच्छा, किसी होटल ले चलो, मैं भूखी हूँ।"
"जी बहुत बढ़िया।" हाँ के अलावा हाँ ही एक और चारा था, मैं बेचारा था।

नज़दीक के एक रेस्तरां में जा के दोनों ने भोजन मंगाया। रात भर की पिलाई के बाद भी उसका मुंह अपनी रफ्तार से चल रहा था.... चमत्कार! सरपट अपनी खाना भकोस गई, और मेरी थाली में उंगली दिखा के बोली "तू खायेगा ये? इधर ला!" और जवाब की परवा कहाँ थी उसे... मुझे आज तक कभी भूख ही कहाँ लगी है... मैं फोटोसिन्थेसिस से अपना भोजन स्वयं बनाता हूँ!
एकदम तीर सा- "... बिल भर दे!" - जी मैडम!
बुप्युंग स्टेशन के पास एक कैफे में ले गई। ज़रूर आस पास ही इसका घर होगा... मुझसे पूछना क्या ज़रूरी है, दो काफ़ी आर्डर कर दी।
"बिल भर देना"
निर्लज्ज! और नहीं, तो ये ज़रूर कोई ठगनी होगी, जो बेखबर गंजे लोगों पे उलटी कर के भोले और मासूम यात्रियों को फंसाती होगी...
अचानक ही वो बीती रात के वाकये याद करने लगी... जैसे किसी फ़िल्म का ट्रेलर सा चल रहा हो- टूटा फूटा सा कुछ। मेरी शक्ल तो उसे याद नहीं थी, लेकिन "डार्लिंग" वाला प्रकरण ध्यान में था। हद है! कम से कम मुझे एक सॉरी तो मिल ही सकती है!

उसने बीच में पूछा, और क्या हुआ था, और मैंने बचे हुए भाग अपनी बेचारगी से जोड़ के सुना दिए। अचानक से ही वो दुखी हो गई, मुझे बताया की कल ही उसका "ब्रेक अप" हुआ था, इसीलिए उसने पी रखी थी... काफ़ी ख़त्म करके वापस कलपने में जुट गई। लोग देखने लगे थे, जैसे उसके दुखों का कारण मैं ही था। पास का एक जोड़ा भवें चढ़ाए मुझे गुनाहगार बनाने में लगा था। वेट्रेस मुझे आँखें फाड़े देख रही थी- हाँ- हाँ! मैं ही राक्षस हूँ!! पास के एक और "जेंटिलमैन" भी मेरे इसी विचार से सहमती जता रहे थे। और मैं वापस कल रात की तरह फंसी मछली जैसा "फील" कर रहा था- रोती लड़की के आंसू आपको समाज का दुश्मन सा बना देते हैं... उसकी सुन्दरता मुझे मोह लेती, जब वो अपने आपे में होती, लेकिन जब भी वो रोती तो मैं भी उसके दुःख से दुखी सा हो जाता था। हो जो भी, उसके साथ होने का मतलब था लोगों की नज़र में चढ़ना।
खैर, रोने का कार्यक्रम ख़त्म हुआ, और काफ़ी की दूकान के बाहर उसने कहा, "ज़रा १०, ००० वोन देना!" और मैंने भी पट से दे दिए। आपको क्या लगता है, मैं अच्छा इंसान हूँ? जी नहीं! कभी कभी डर अच्छाई जैसा दिख सकता है, है न? इसकी हिम्मत से डर लग रहा था, जाने क्या कर डाले!

जाने से पहले उसने कहा की वो रात को मुझे फ़ोन करेगी। मैं अपने घर सिओल चला आया।

उस शाम उसने मुझे उसी काफ़ी शॉप में आने को कहा- वो मुझे "थैंक यु डिनर" खिलाना चाहती थी। बढ़िया है!

मैं ठीक समय पे वहां पहुँच गया। उसकी सुन्दरता अवाक् कर दे- थोड़ा मेक- अप जैसा कुछ कर रखा था- और कोई और बढ़िया से कपड़े पहन रखे थे। थोडी देर तक अपलक ही देखता रह गया, और फ़िर- जाम का दौर शुरू हुआ। मुझे चिंता ये थी कि कल की तरह ही आज भी ये बेहोश न हो जाए... वरना कल रात जैसा ही...
मैं यहाँ सोच रहा था और इसी बीच उसने अपना गला आधी बोतल सोजू से भिगो लिया। बताना व्यर्थ होगा की सोजू उसे फ़िर से सपनों की दुनिया में, उसके गम से दूर ले गई।

बस? आधी बोतल सोजू! यानी कल भी आधी ही बोतल पी होगी! इस बार इसकी अय्याशी के पैसे मैं नहीं दूँगा। उसका बटुआ निकाला। उसमें पड़ा उसका पहचान पत्र देखा। 16 अप्रैल 1976 का मनुफैक्चर्ड डेट है। मैं पचहत्तर की पैदाईश हूँ। मेरे दोस्त सारे '74 वाले हैं। लेकिन मैं जनवरी में पैदा हुआ था, इसीलिए मैं भी '74 वाली लिस्ट में आता था। लेकिन जो भी हो, ये मुझसे एक साल छोटी है, और तब भी तू कह के संबोधित करती है? थोड़ी इज्ज़त तो करनी चाहिए, है न? शायद मेरी त्वचा से मेरी उम्र का पता न चलता हो!

आज रात मैं फ़िर घोड़ा बनूँगा, बस ये मेरे ऊपर उलटी न करे!

फ़िर से उसी होटल पहुँचा। होटल वाले अपने "परमानेंट" ग्राहक की खातिर में कोई कमी नहीं छोड़ रहे थे। उसकी रिसेप्शनिस्ट ने पहचान लिया और इज्ज़त से अन्दर ले गई, "आज फ़िर अंधेर हो गई?"
"हाँ" हांफते हुए साँस भी बाहर निकल गई और जवाब भी दे दिया।
"ठीक है, जाओ, मैं दवा लेकर आती हूँ..."
कमरे का अकेलापन, और दिल धौंकनी उसकी खूबसूरती के सुर पे अपने ताल सुनाता रहा... तड़प से बेबस हो उसने शराब का सहारा लिया होगा... क्योंकि शराबी जैसी दिखती तो नहीं है... जो भी हो, मुझे उससे हमदर्दी सी हो चली थी....

कल सोमवार होगा, यानी मेरी क्लास होगी। उसकी चिंता करना अब व्यर्थ है, चल खुसरो, सोने चलें। मैंने एक कोने में सिकुड़ कर नींद पूरी की। तब भी एक ही ख्याल बार बार मुझे आ रहा था, मुझे इसका दर्द कम करना ही चाहिए....

नहीं जी, हम दोनों अभी भी अनजान से थोड़े ही ज्यादा हैं, किसी ख्याल को न पालिये- वो मेरी गर्लफ्रेंड नहीं है- अगर आप उस दिन उस डब्बे में नहीं थे तो! वो मेरी पसंद से थोड़ी ज्यादा है, लेकिन वो और मैं मुझे एक ही तस्वीर में नहीं दिखते... वो भी मेरे बारे में इससे ज्यादा नहीं सोचती होगी...

लेकिन फ़िर भी किसी तरह उसकी फांस दूर कर सकूँ, काश ऐसा कर सकूँ....

अब तो तीन महीने हो गए हैं। इन तीन महीनों में कितनी ही मुलाकातें हुईं, और ये तीन महीने तूफ़ान की तरह बीते। मेरी कहानियाँ इसी तूफ़ान की दास्ताँ हैं...

क्रमशः

Tuesday, October 6, 2009

मेरी पगली: भाग 35 का 2

दोस्त और शराब, शाम के सबसे अच्छे साथी हैं... रात के दस बजे ये याद आया की अपनी बुप्युंग वाली मौसी से मिलना है (मौसी लोगों से मिलने में मेरी खासी अरुचि है).... जाना मजबूरी थी, इसीलिए मैंने शिनरिम से सानरिम तक की मेट्रो पकड़ ली और वहाँ से शिन्दोरिम... शिन्दोरिम वाली ट्रेन थोड़ी लेट थी, और उस खाली समय में मैंने देखा- मेरे बगल में एक धुत लड़की पीले टी शर्ट और जींस में खड़ी थी।
अगर बला की नहीं , फ़िर भी मेरे स्टैण्डर्ड से आकर्षक ही थी... वयस कुछ 24- 25 की रही होगी...

मदहोशी में उसकी आँखें कभी अधमुंदी, तो कभी बंद सी होती थीं।
कुछ बुदबुदा रही थी.....
[बुदबुदाने की आवाज़]

अगर ये शराबी न होती तो मेरे सांचे में फिट होती....

खैर, ट्रेन आदतन लेट आई.... और लेट होने के कारण खाली ही थी। डब्बे में मैं और वो, दोनों दो उल्टे दरवाजों पे टिके हुए थे।

इस पूरी ट्रेन में मैंने नज़र दौड़ाई, कोई सो रहा था, कोई स्वेटर बुन रही थी, कोई अखबार पढ़ रहा था.... और मैं? मुझे तो वो क्यूट सी लग रही थी, तो मैं उसे ही देख रहा था। उसका नशे में होना ही मेरी नज़र में उसको खूबसूरत बना रहा था। लोग बाग़ अकसर पोल पर पीठ टिका कर टिकते हैं, ये पोल के सहारे डोल रही थी। बूढ़े टकलू अंकल बाजू में बैठे अखबार चाट रहे थे.... और मैं उसे निहार रहा था....

सब कुछ शांत सा चल रहा था की अचानक ही उसे उबकाई आई और- ओक्क! हड़-हड़-हड़ाक!

अभी तक तो मैं ही देख रहा था, इस आवाज़ के बाद पूरी बोगी ही उसको देखने लगी...

जो सो रहा था, वो आँखें मलता हुआ सा उठ बैठा, स्वेटर वाली आंटी उधर ही देखने लगीं, और सबकी हँसी पिचकारी सी छूट पड़ी। टकले अंकल के सर पे नूडल्स बाल जैसे पड़े हुए थे, और सरकते हुए उनकी तोंद और कन्धों पे गिर रहे थे... दस सेकंड तक तो वो हतप्रभ पड़े रहे... फ़िर साफ़ करने को हुए की दूसरी और तीसरी खेप भी आ गिरी। नूडल्स बिना शोरबे के अच्छे नहीं लगते, तो उस नशेबाज़ ने उनको वो भी "सर्व" कर दिया...

नूडल्स लाल हैं... ह्म्म्म्म... ज़रूर घोंघे वाली नूडल्स खायी है.....

बेचारे अंकल अखबार से ख़ुद की सफाई कर रहे थे.... उनके कपड़े और दिन, दोनों ही बरबाद हो गए थे...
... और मेरी रात बरबाद होने वाली थी।

उल्टी कर के वो जब संतुष्ट हो चुकी तो अधमुंदी आंखों से मेरी ओर देखा, और "डार्लिंग" कह कर बेहोश हो गिरी। मैं हड़बड़ा गया, "कौन- मैं? आप हैं कौ...", लेकिन बेहोश होने वाली तो कब की उलट चुकी थी।

अब सारा डब्बा मेरी ओर देख रहा था.... जिसकी नींद खुल चुक थी, उसकी समझ में ये आ रहा था की इस लड़की का ब्वायफ्रेंड मैं ही हूँ। स्वेटर वाली आंटी मुझे घूर रही थीं। दूर खड़ी एक लड़की आँखें तरेर कर मुझे ही देख रही थी। रात के वक़्त सनग्लास पहने एक लड़की हंस रही थी.... मैं डरा हुआ सब में एक चेहरा खोज रहा था जो ये कहे मैं उसका डार्लिंग नहीं था...

... और अंकल जी चिल्ला रहे थे "तुम! इधर आओ, और साफ़ करो! ये क्या किया?"

मैं कहाँ फंस गया! मेरा दिमाग सुन्न हो रहा था, और डर से मेरी घिग्घी बंद थी...

"म-मैंने नहीं किया..."
"तुमने ही किया है! अपनी गर्लफ्रेंड का ख्याल नहीं रख सकते! साफ़ करते हो या नहीं...." अंकल जी भौके।
डर के मारे मेरे मुंह से निकल गया, "जी सर, सॉरी",
... और मैंने मुझे उस डब्बे के समाज के आगे उस बेहोश लड़की का ब्वायफ्रेंड करार दिया....

डर से थरथराता मैं बेचारा क्या करता, नैपकिन रूमाल मेरे पास होते भी नहीं थे। मजबूरन, अपनी शर्ट उतारी, जो मेरी बहन ने मुझे बर्थडे गिफ्ट दी थी, और उससे उनकी खोपड़ी चमकाने लगा....
"जल्दी करो!"
"ज-जी सर!" रोनी हालत थी.... हाथ जल्दी जल्दी चल रहे थे। जिल्लत और डर, सब एक साथ...

जब चीज़ें सामान्य होने लगीं तो मुझे अपनी नई "डार्लिंग" का ख्याल आया, जो चारों खाने चित पड़ी थी.....

बुप्युंग अगला स्टेशन था। मैंने उसे उठा कर बाहर निकाला (दरअसल, पैरों से घसीट कर निकाला), और उसे पास की एक कुर्सी पर बिठा दिया। लेकिन किसी लड़की को बीच रास्ते में छोड़ कर नहीं जा सकते... उसे जगाने की कोशिश की, लेकिन वो उठी नहीं।
मेरे पास कोई चारा नहीं था। कोई होटल करना होगा। वो हलकी फुलकी ही थी, लेकिन उसे लाद कर पास के होटल तक जाते जाते मैं पसीने में नहा गया....
... मैं भी कहाँ जंजाल में फंस गया था, सब चांस की बात है.... और आप भी शायद यही नहीं करते?... मैं बुरा इंसान नहीं हूँ.... मैं किसी बेहोश और अनजान लड़की को न तो छोड़ सकता हूँ, और न पीठ पर लाद कर घूम ही सकता हूँ....

"तुम्हारी गर्लफ्रेंड तो गई!", रिसेप्शनिस्ट बोली।
"हाँ, कोई कमरा खाली है? अ.. आपके पास होश की कोई दवा है?"
उसे लाद कर कमरे तक गया, और बिस्तर पर लिटा दिया।
उसने उलटी बड़ी सफाई से की थी, ख़ुद के कपड़ों को गन्दा किए बगैर, इसलिए उसके कपड़े बदलने की ज़रूरत नहीं पड़ी।

अब जबकि होटल का रूम मिल ही गया था, तो सोचा की नहा ही लूँ...
मन भर कर नहाया, और जब बाहर निकला तो देखा की वो चैन से सो रही थी। मैंने एक चिट उसके पास छोड़ दी, "मैडम, आप मुझे कॉल कर सकती हैं", नीचे अपना मोबाईल नम्बर मैंने छोड़ दिया, और वहां से चला गया...

आप सोचते होंगे की क्या उसने मुझे कॉल किया? वो बड़ी हिम्मती लड़की थी, मुझसे भी ज्यादा (और उसकी यादें मुझे आज भी काटती हैं)।
और हाँ, अगले दिन उसका फोन आया....

क्रमशः

Sunday, October 4, 2009

मेरी पगली: भाग 35 का 1

ये कथा मैंने कोरियाई भाषा में देखी थी, कुछ साल भर पहले, पहली बार। अब तक कुछ डेढ़ - दो सौ बार देख चुका हूँ, किंतु विस्मित होने से शायद स्वयं को न रोक सका हूँ। कुछ दिनों पहले, मुझे यह पता चला की अंतरजाल पर इसका मूल विस्तार है। वह किसी हो- सिक किम का लिखा है, जिसकी यह आपबीती है। इस कथा पर कोरियाई, अंग्रेज़ी, और हिन्दी में चलचित्र बन चुके हैं। अतएव, मेरा कुछ भी लिखना शायद कहानी को संकीर्ण बना दे। एक प्रयास है, उम्मीद है खरा उतरेगा।

सादर धन्यवाद्-
हो- सिक किम (यद्यपि उनका विछोह पीड़ादायी है, उसका समुचित इलाज समय के पास ही है) एवं bumfromkorea, जिनके अंग्रेज़ी अनुवाद के बिना मेरा कुछ भी समझ पाना अगले कुछ 5 वर्षों तक सम्भव न होता।

मैं इस कथा का एक प्रस्तोता मात्र हूँ।
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पुनःश्च -
असली कथा कोरियाई में इस वेब पते पर देखी जा सकती हैइसका अंग्रेज़ी अनुवाद यहाँ उपलब्ध है
bumfromkorea की रचना।
हो- सिक किम की आप- बीती का कोरियाई संस्करण
कोरियाई चलचित्र- Yeopgijeogin geunyeo.
अंग्रेज़ी चलचित्र- My Sassy Girl.
हिन्दी फ़िल्म- अगली और पगली

Saturday, September 5, 2009

स्वर्ग की परिभाषा

किसी वन में एक ऋषि अपने परिजनों के संग रहते थे| उनके परिवार में तीन सदस्य थे, उनकी भार्या, उनका पुत्र, और उनकी पुत्री| नित्य प्रति, उनका परिवार भिक्षा हेतु पास के नगर को जाता, और जो भी भिक्षा मिलती, दिन के अंत में उसका अर्द्ध- भाग भोजन हेतु पका लिया जाता, और बचा हुआ भाग रख लिया जाता था| प्रत्येक मास, उस बचे हुए अन्न से ऋषिवर होम करते थे| उस होम की गरिमा की ख्याति स्वर्ग तक फैली थी, जहाँ से अन्य देवता भी उस यज्ञ का प्रसाद लेने आते थे|
एक दिन, जब उन ऋषि का परिवार यज्ञ का प्रसाद बाँट कर भोजन ग्रहण करने जा रहा था तो बहार से एक आवाज़ आई, "क्या सब प्रसाद समाप्त हो गया, या ब्राह्मण को कुछ मिलेगा?"
ऋषिवर ने देखा, बाहर दुर्वासा खड़े थे| संभवतया, यज्ञ की महिमा उन्होंने भी सुनी होगी|
ऋषि बोले, "पधारिये भगवन, प्रसाद अवश्य मिलेगा|"
दुर्वासा भोजन पर बैठ गए, तो ऋषि ने अपना भोजन उनके आगे कर दिया| दुर्वासा ने भोग लगाया, और बोले, "और मिलेगा?"
ऋषि को संकोच होता जान उनकी पत्नी ने उन्हें अन्दर बुलाया, और कहा, "आप उन्हें मेरा भोजन भी दे दें| वो हमारे अतिथि हैं|"
दुर्वासा के सामने और भोजन परोसा गया, किंतु दुर्वासा की क्षुधा शांत हुई| इसी भांति समूचे भोजन का भोग लगाने के पश्चात् दुर्वासा शांत हुए और गए| उस दिन उन ऋषि का परिवार भूखा सोया|
अगले महीने पुनः यही घटनाक्रम घटा, और कई महीनों तक घटता रहा, किंतु दुर्वासा के आतिथ्य सत्कार में कोई कमी हुई|
इस पूरे परिवार के कर्म को इस तरह उन्नत देख कर इन्द्र ने यह निर्णय लिया की इन्हें सशरीर स्वर्ग दे दिया जाए| ऐसा करने हेतु उन्होंने दो देवदूत इन ऋषि के पास भेजे|
देवदूतों ने ऋषि को इन्द्र की मंशा की सूचना दी, और पूछा, "क्या आप सरे आदरणीय हमारे संग चलने के इच्छुक होंगे?"
ऋषि थोडी देर सोचते रहे| कहा, "हे देवदूत, मेरे एक संशय का निवारण करें| मेरा प्रश्न ये है की स्वर्ग की परिभाषा क्या है?"
देवदूतों को अचम्भा हुआ| मुस्कान फूट पड़ी| बोले, "ऋषिवर, स्वर्ग तो सभी को पता है| यदि आप अपना प्रश्न थोड़ा और स्पष्ट करें तो शायद हम समाधान कर सकें|"
ऋषि ने पूछा, "स्वर्ग में फल कैसे मिलता है?"
"स्वर्ग में कर्म करने की आवश्यकता नहीं होती प्रभु| जीव अपने कर्म मर्त्यलोक में करता है, और उन संचित कर्मों का उपभोग करने स्वर्ग जाता है| स्वर्ग सर्वगुण संपन्न है| वहां विपन्नता नहीं है| और सारी सुविधाएं वहां उपलब्ध हैं|"
ऋषि ने अगला सवाल पूछा, "अर्थात्, स्वर्ग में यदि कर्म नहीं किया जा सकता तो वहां कर्म का क्षय होगा? कर्म- क्षय के उपरांत जीव कहाँ जाता है?"
देवपुरुष बोले, "जीव के कर्म जब घटने के पश्चात् शून्य हो जाते हैं, तो वह पुनः धरती पर जन्म लेता है, पुनः कर्म करता है, और संचित कर्मों का उपभोग करने वह स्वर्ग को प्रस्थान करता है| इसे ही जीवन मरण का चक्र कहते हैं|"
ऋषि की जिज्ञासा और बढ़ी, "और यदि कर्मों का फल किसी अधिकतम सीमा को पार कर जाए तो क्या होगा?"
"हे ज्ञानी ऋषि, स्वर्ग के सात स्तर हैं| हर स्वर्ग के अधिष्ठाता एक देवता हैं| जिस स्वर्ग की हम विवेचना कर रहे हैं, वह निम्नतम कोटि का है| उसके राजा का पद 'इन्द्र' कहलाता है| इस स्वर्ग के ऊपर और छः स्वर्ग हैं, जिनमें उच्चतम कोटि का स्वर्ग वैकुण्ठ है| जो उस स्वर्ग में जाता है, उसके कर्म अक्षय हो जाते हैं, और वह जीवन- मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है|"
कुछ क्षणों की शान्ति को भंग करते हुए ऋषि बोले, "हे देव, मैं आपके राजा इन्द्र के प्रस्ताव का आदर करता हूँ, किंतु मैं अपने कर्मों का क्षय नहीं करना चाहूँगा, अतएव, मुझे आपका निमंत्रण स्वीकार्य नहीं होगा|"
इतना कह कर ऋषि ने उन देवदूतों से विदा ली, और अपनी राह चले गए| आगे चल कर उनके कर्मों के प्रताप से उनको वैकुण्ठ मिला|

Monday, August 31, 2009

शोध


किसी जंगल में, एक वृक्ष की छाँव में बैठा एक खरहा अपने संगणक पर कोई रचना कर रहा था| तभी वहां से एक लोमड़ी गुजरी| लोमड़ी ने खरहे से पूछा, "मित्र, तुम क्या कर रहे हो?" "पी एच डी की थीसिस लिख रहा हूँ", खरहा बोला, "मेरे शोध का विषय यह है की खरहा लोमड़ी का शिकार कैसे करे?" लोमड़ी को बड़ा अचम्भा हुआ| बोली, "ऐसा होते तो मैंने कभी सुना नहीं!" "देखने की इच्छुक हों अगर आप, तो मेरे साथ मेरी गुफा में जायें|" खरहे के निवेदन और अपनी उत्कंठा को शांत करने के लिए लोमड़ी उसके पीछे चल पड़ी| कुछ क्षणोपरांत खरहा लोमड़ी की हड्डी अपने दांतों में दबा कर, कूदता हुआ वापस गया, और वापस संगणक पर अपने प्रयोग का विस्तार लिखने लगा|
इतने में वहां एक भेड़िया आया| भेड़िये ने पूछा, "कुछ कर रहे हो दोस्त?" खरहे ने उत्तर दिया "हाँ! मैं एक शोध कर रहा हूँ| शोध है कि खरहा भेड़िये का शिकार कैसे करे|" भेड़िये को अपने कानों पर विश्वास हुआ| उसने कहा, "दोस्त, ऐसा होना असंभव है|" और फ़िर लोमड़ी की भांति भेड़िया भी अपना उत्सुकता शांत करने हेतु खरहे के पीछे उसकी गुफा को रवाना हो गया, और जल्द ही खरहा पूर्व की भांति भेड़िये की हड्डी कुतरता हुआ बाहर अपने स्थान पर डटा|
ठीक उसी समय, एक जंगली सूअर वहां पहुँचा| उसको खरहे को देख कर खाने का मन हो आया| उसने ललचाई आंखों से खरहे की ओर देखा, और लगभग अपनी लार रोकता हुआ पूछा- "बड़े ज़ोर शोर से काम हो रहा है?" खरहे ने उसकी आंखों में अपने लिए भूख देखी| उसने शांत हो कर कहा "हाँ, मैं शोध कर रहा हूँ की खरहा जंगली सूअर का माँस कैसे पाये|" शूकर ऐसा सुन कर ताव में गया, आँखें गुरेरते हुए बोला, "अगर तूने मेरा शिकार ना किया ना, तो मैं आज तेरा नर्म माँस खा के मानूंगा| अब तू मेरा शिकार कर के दिखा|" "तुम भागोगे तो नहीं ना?" खरगोश ने मासूमियत से पूछा| एक कदम और आगे कर सूअर बोला, "नहीं, लेकिन मैं देखना चाहूँगा की तुम किस तरह मेरा शिकार करोगे|"
खरगोश ने टेर लगायी, "गुरूजी, कृपया बाहर आकर मुझे बताएँगे की सूअर का शिकार कैसे करते हैं?" खरहे की पुकार पर शेर गुहा से बाहर निकला| उसे देख कर सूअर के प्राण सूख गए| वह वहीं जड़ हो गया| शेर ने उसपे झपट्टा मारा और एक ही पंजे में उसे ढेर कर दिया| खरहे की ओर मुड़कर वह बोला, "सूअर का शिकार ऐसे करते हैं|"

शिक्षा
: किसी भी तंत्र में गुरु का प्रवीण होना अत्यावश्यक है|