Saturday, September 5, 2009

स्वर्ग की परिभाषा

किसी वन में एक ऋषि अपने परिजनों के संग रहते थे| उनके परिवार में तीन सदस्य थे, उनकी भार्या, उनका पुत्र, और उनकी पुत्री| नित्य प्रति, उनका परिवार भिक्षा हेतु पास के नगर को जाता, और जो भी भिक्षा मिलती, दिन के अंत में उसका अर्द्ध- भाग भोजन हेतु पका लिया जाता, और बचा हुआ भाग रख लिया जाता था| प्रत्येक मास, उस बचे हुए अन्न से ऋषिवर होम करते थे| उस होम की गरिमा की ख्याति स्वर्ग तक फैली थी, जहाँ से अन्य देवता भी उस यज्ञ का प्रसाद लेने आते थे|
एक दिन, जब उन ऋषि का परिवार यज्ञ का प्रसाद बाँट कर भोजन ग्रहण करने जा रहा था तो बहार से एक आवाज़ आई, "क्या सब प्रसाद समाप्त हो गया, या ब्राह्मण को कुछ मिलेगा?"
ऋषिवर ने देखा, बाहर दुर्वासा खड़े थे| संभवतया, यज्ञ की महिमा उन्होंने भी सुनी होगी|
ऋषि बोले, "पधारिये भगवन, प्रसाद अवश्य मिलेगा|"
दुर्वासा भोजन पर बैठ गए, तो ऋषि ने अपना भोजन उनके आगे कर दिया| दुर्वासा ने भोग लगाया, और बोले, "और मिलेगा?"
ऋषि को संकोच होता जान उनकी पत्नी ने उन्हें अन्दर बुलाया, और कहा, "आप उन्हें मेरा भोजन भी दे दें| वो हमारे अतिथि हैं|"
दुर्वासा के सामने और भोजन परोसा गया, किंतु दुर्वासा की क्षुधा शांत हुई| इसी भांति समूचे भोजन का भोग लगाने के पश्चात् दुर्वासा शांत हुए और गए| उस दिन उन ऋषि का परिवार भूखा सोया|
अगले महीने पुनः यही घटनाक्रम घटा, और कई महीनों तक घटता रहा, किंतु दुर्वासा के आतिथ्य सत्कार में कोई कमी हुई|
इस पूरे परिवार के कर्म को इस तरह उन्नत देख कर इन्द्र ने यह निर्णय लिया की इन्हें सशरीर स्वर्ग दे दिया जाए| ऐसा करने हेतु उन्होंने दो देवदूत इन ऋषि के पास भेजे|
देवदूतों ने ऋषि को इन्द्र की मंशा की सूचना दी, और पूछा, "क्या आप सरे आदरणीय हमारे संग चलने के इच्छुक होंगे?"
ऋषि थोडी देर सोचते रहे| कहा, "हे देवदूत, मेरे एक संशय का निवारण करें| मेरा प्रश्न ये है की स्वर्ग की परिभाषा क्या है?"
देवदूतों को अचम्भा हुआ| मुस्कान फूट पड़ी| बोले, "ऋषिवर, स्वर्ग तो सभी को पता है| यदि आप अपना प्रश्न थोड़ा और स्पष्ट करें तो शायद हम समाधान कर सकें|"
ऋषि ने पूछा, "स्वर्ग में फल कैसे मिलता है?"
"स्वर्ग में कर्म करने की आवश्यकता नहीं होती प्रभु| जीव अपने कर्म मर्त्यलोक में करता है, और उन संचित कर्मों का उपभोग करने स्वर्ग जाता है| स्वर्ग सर्वगुण संपन्न है| वहां विपन्नता नहीं है| और सारी सुविधाएं वहां उपलब्ध हैं|"
ऋषि ने अगला सवाल पूछा, "अर्थात्, स्वर्ग में यदि कर्म नहीं किया जा सकता तो वहां कर्म का क्षय होगा? कर्म- क्षय के उपरांत जीव कहाँ जाता है?"
देवपुरुष बोले, "जीव के कर्म जब घटने के पश्चात् शून्य हो जाते हैं, तो वह पुनः धरती पर जन्म लेता है, पुनः कर्म करता है, और संचित कर्मों का उपभोग करने वह स्वर्ग को प्रस्थान करता है| इसे ही जीवन मरण का चक्र कहते हैं|"
ऋषि की जिज्ञासा और बढ़ी, "और यदि कर्मों का फल किसी अधिकतम सीमा को पार कर जाए तो क्या होगा?"
"हे ज्ञानी ऋषि, स्वर्ग के सात स्तर हैं| हर स्वर्ग के अधिष्ठाता एक देवता हैं| जिस स्वर्ग की हम विवेचना कर रहे हैं, वह निम्नतम कोटि का है| उसके राजा का पद 'इन्द्र' कहलाता है| इस स्वर्ग के ऊपर और छः स्वर्ग हैं, जिनमें उच्चतम कोटि का स्वर्ग वैकुण्ठ है| जो उस स्वर्ग में जाता है, उसके कर्म अक्षय हो जाते हैं, और वह जीवन- मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है|"
कुछ क्षणों की शान्ति को भंग करते हुए ऋषि बोले, "हे देव, मैं आपके राजा इन्द्र के प्रस्ताव का आदर करता हूँ, किंतु मैं अपने कर्मों का क्षय नहीं करना चाहूँगा, अतएव, मुझे आपका निमंत्रण स्वीकार्य नहीं होगा|"
इतना कह कर ऋषि ने उन देवदूतों से विदा ली, और अपनी राह चले गए| आगे चल कर उनके कर्मों के प्रताप से उनको वैकुण्ठ मिला|