Monday, October 19, 2009

मेरी पगली: भाग 35 का 4

ताज़ा ख़बर ये है की मैं भी अब उससे तू- तड़ाक से ही बातें करने लगा हूँ। हुआ यों था:

मैं: त-तुम्हें मेरी उ- उम्र कितनी लगती है? (मैं तो अब भी डर ही रहा था)
"ये ऐसी कौन सी ज़रूरी बात है जो मैं जानूं?" उसने मेरी ओर आँखें तरेर कर कहा।
"मैंने देखा है, तुम '76 की हो। मैं तुमसे एक साल बड़ा हूँ। और इस नाते तुम्हें मुझसे इज्ज़त से पेश आना होगा।", काश, मैं ऐसा धमाका कर पता।
"म- मैं क्या कह रहा था... मैं सोच रहा था... शायद तुम '76 की हो... ऐतराज़ हो तो नहीं भी हो सकती हो... लेकिन अगर हो... तो मैं तुमसे एक साल बड़ा हो सकता हूँ...."
"अच्छा! तो तू भी मुझे तू बुला सकता है, इसमें ऐसी कौन सी बात है!"

और इस तरह मुझे उसे तू कहने का लाइसेंस मिल गया। अजीब सा नहीं है क्या? मिले हुए इससे दो दिन और तीन रातें हुयी हैं, और जिनमें दो रातें हमने होटल में बितायी हैं, एक साथ, एक ही कमरे में!

वो किसी यूनिवर्सिटी में पढ़ती है, जहाँ उसका बुधवार "ऑफ़" होता है। मेरी छुट्टी गुरू को होती है।

अभी इस बुध को उसका जी नहीं लग रहा था, कुछ करने को नहीं था, तो मुझे फ़ोन लगा डाला। मैं क्लास में बैठा उकता रहा था। मैंने उसको समझाने की कोशिश की कि एक खड़ूस प्रोफेसर कि क्लास जो दोपहर बर्बाद कर देती है, उसमें मुझे अचानक से बड़ा मज़ा जैसा कुछ आने लगा है। लेकिन मैं उसके रहते मज़ा कैसे लूँ... उसने धमकी दे दी कि वो मेरे कॉलेज आ रही है, और मैं उसको रोक नहीं सका।
लंच के बाद 2 30 की झपकी आई ही थी की धड़ाक से दरवाज़ा खुला। अक्सर जब लड़के लेट से आते थे तो पीछे के दरवाज़े से चुपके से दाखिल हो जाते थे, ये कौन हिम्मतवाला हो आया था जो सामने के दरवाज़े से ही... सबने उधर देखा... हंटर वाली ही थी- "ये कैसा कॉलेज है! क्लास रूम मिलते नहीं कभी!" इस विवेचना के साथ वो घुसी। मेरे होश ही उड़ गए। मैं सोने और इधर उधर लोटने की एक्टिंग करने लगा, आँखें मीचे छोटे बच्चे जैसा, जिसको दुनिया नहीं देख पाती है! लेकिन उसके चाप बता रहे थे की वो मुझे देख भी रही थी, और मेरे पास भी आ रही थी। उसको कैसे पता चला की वो आँखें मीचे मैं ही हूँ? अचम्भा है न! अगर मैं उसको नहीं देख पा रहा तो वो भी मुझे नहीं देख सकती होगी, ऐसी उम्मीद फ़ेल होती दिख रही थी.....

मेरा सारा जेब खर्च खाने और दोस्तों के साथ पीने की भेंट होता। इसीलिए मेरे पास एक ही शर्ट और पैंट थी, और जब भी मैं मिलता था, वही पहने होता था। उसी से पहचाना होगा। भक! मेरे दोस्त... दारू... और ये दुनिया..... कहाँ भागूं जहाँ मुझे इस हाल में किसी ने न देखा हो... उसको मेरे पास ही बैठना था।

नया सेमेस्टर था इसीलिए प्रोफ़ेसर सब को नहीं जानता था। वो सोच रहा होगा की कोई क्लास की ही लड़की होगी....
....और यहाँ बाकी लोगों में करंट सा दौड़ रहा था! सारे दाएं बाएँ की बातें ही कर रहे थे:
"नई चिड़िया है क्या?"
"लगती तो है!"
"खतरनाक खूबसूरती है!"
"अपने कॉलेज में ऐसी सुंदर लड़कियां कब से आने लगीं?"
"हा... इसीलिए ताकि मैं इस क्लास में आ सकूँ!"
मेरे पीछे वाले ने पेन्सिल घोंप के फुसफुसाया "अबे, तेरे बगल वाली तो कुछ धमाका है! क्लास के बाद इसका पता ठिकाना पता करें क्या?"
"गधे...." मैंने सोचा। अभी जब ब्रेक में ये मुझे घसीटती हुयी ले जायेगी, तो उसके ब्वायफ्रेंड के नाम से फेमस होते मुझे दो सेकंड भी नहीं लगेंगे। काश ये बीस मिनट बीत जायें और ब्रेक में मैं चुपके से खिसक सकूँ! और ये मेरे क्लास वाले इस बीस मिनट को और लंबा बना रहे थे....

ब्रेक हुआ। मैं झटपट उठ के भागने लगा। उसने मेरा पीछा किया, और बोली- कहीं किनारे चल के बातें करते हैं!
क्या मुसीबत है!

मैं वैसे भी कोई देश का होनहार नौनिहाल नहीं हूँ। और ये खड़ूस मास्टर सीधे डी और ऍफ़ देने के लिए मशहूर था।

इमानदारी से उसको समझाने की पूरी कोशिश की कि मैं ये क्लास को अलविदा नहीं मार सकता, चाहो तो मार ही डालो! उसने भी कहा " ठीक है!" और बैठ गई।

दस मिनट का ब्रेक ख़त्म हो चुका था... वो क्लास में नहीं आई थी। चली गई या बाहर मेरा वेट कर रही है...?
सोच की धारा प्रोफ़ेसर ने तोड़ी- " ग्युनवू, तुम आज जा सकते हो, तुम्हारा अटेंडेंस मैं लगा दूँगा।"
"ल-लेकिन क्यों?"
"वो तुम्हारी गर्लफ्रेंड थी न?"
पूरी क्लास में सुई पटक सन्नाटा। वो सबके आंखों की भौचक जलन मुझे एक क्षणिक "प्राइड" दे रही थी। लेकिन इसने मास्टर को ऐसा कहा क्या होगा, जो इसने मुझे छोड़ दिया? खैर, सामान ले कर बाहर आया तो देखा, वो इंतज़ार कर रही थी।

"तूने उसको ऐसा कहा क्या जो वो मान गया?"
उसने खुलासा किया, "... ये की मैं अबोर्शन कराने जा रही हूँ, और बच्चे का बाप तू है!"
पैरों के नीचे से ज़मीन की चादर किसी ने खींच दी! कोई और ये बताता, तो शायद मैं न मानता.... इसकी हिम्मत का फौलाद एकदम मानना ही होगा।
मुझे कहीं का न छोड़ा इसने! मेरी कैम्पस लाइफ की तो मौत ही हो गई..... अब मैं उस क्लास में ऍफ़ लेना चाहूँगा, और जाने की कोई इच्छा नहीं बची है। सुनने में आया की जब लड़कों ने मुझे छोड़े जाने पर नाक भौं सिकोड़े तो प्रोफ़ेसर ने उनको उस वजह की मुनादी पीट दी। सोने पे सुहागा।
मेरी सहपाठी लड़कियां अब मुझसे कतराने लगीं, वो युन्गमी, जो मुझे नक्शे बनाने में हमेशा मदद करती थी, वो भी दूर भागने लगी थी, मुझे कामांध कमीना समझती थी। हालात ये थे की जिस भी कक्षा में मैं जाता, लोगों की कहानियाँ और दंत कथाओं का विलेन मैं होता।
मिलिट्री में दो साल बिताने के बाद कॉलेज में दाखिला लिए दो महीने ही बीते थे की मेरा हुक्का पानी बंद सा हो गया था। और ये छुआछूत तो बस तकलीफ मात्र थी, क्योंकि आगे जो हुआ वो दर्दनाक था।

ओह हाँ, और ये बताना श्रेयस्कर होगा की उस कोर्स में मुझे बी मिला। लोग अब और भी जलने लगे थे। मेरे दोस्त ने बताया था की उस बार 120 में सिर्फ़ एक को ही ऐ मिला था। उसके बाद "मेरी सिचुएशन को देखते हुए" पूज्य गुरू जी ने मुझे बी देने का निश्चय किया था, जो पहले कभी ना हुआ था, न आगे ही कोई और कर सकने का हौंसला रखेगा।

मैं कॉलेज का "लेजेंड" बन चुका था....

Friday, October 16, 2009

मेरी पगली: भाग 35 का 3

अगर आप सोचें तो आप भी उसकी बहादुरी की दाद दिए बिना न रहेंगे। वरना सोचिये, आप हों शराब के नशे में धुत, किसी अजनबी के संग होटल में रात बिताने के बावजूद आप उसे कॉल शायद ही करें।

तो उठते ही उसने मुझे फ़ोन मिलाया... शायद उसे भी सब कुछ पूरी तरह याद नहीं था। अच्छा है, कभी कभी बुरी याददाश्त ही अच्छी।

मैं: हेलो?
"कौन है तू?" उसने दहाड़ मारी (मैं उतनी देर से उसकी बहादुरी के बारे में बता रहा था न, क्यों?)
मैं: कौन? मैं समझा नहीं?
"तूने अपना नम्बर छोड़ा था, मैंने इसीलिए कॉल किया। यहाँ आ। अभी!"
मैं डरता हुआ होटल पहुँचा। वो लड़की बाहर ही इंतज़ार कर रही थी। थोड़ा डर सा लग रहा था, मानो उसको कल रात का याद रहा तो? नहीं होगा याद! पी के आउट थी!! और मान लो जो याद रह ही गया तो...?
और तब..."सूअर! तुमने मेरे साथ क्या किया है? कमीने! रुक जा! मैं पुलिस बुलाऊंगी..."

"ज़रा सुनिए?", बोल फूटे।
"अच्छा! तो वो तू है?" [तू! तू तड़ाक से ही शुरू की है, बदज़बान]
"ह- हाँ, मैं ही हूँ, लेकिन आप तू करके कैस..."
"अच्छा अच्छा, किसी होटल ले चलो, मैं भूखी हूँ।"
"जी बहुत बढ़िया।" हाँ के अलावा हाँ ही एक और चारा था, मैं बेचारा था।

नज़दीक के एक रेस्तरां में जा के दोनों ने भोजन मंगाया। रात भर की पिलाई के बाद भी उसका मुंह अपनी रफ्तार से चल रहा था.... चमत्कार! सरपट अपनी खाना भकोस गई, और मेरी थाली में उंगली दिखा के बोली "तू खायेगा ये? इधर ला!" और जवाब की परवा कहाँ थी उसे... मुझे आज तक कभी भूख ही कहाँ लगी है... मैं फोटोसिन्थेसिस से अपना भोजन स्वयं बनाता हूँ!
एकदम तीर सा- "... बिल भर दे!" - जी मैडम!
बुप्युंग स्टेशन के पास एक कैफे में ले गई। ज़रूर आस पास ही इसका घर होगा... मुझसे पूछना क्या ज़रूरी है, दो काफ़ी आर्डर कर दी।
"बिल भर देना"
निर्लज्ज! और नहीं, तो ये ज़रूर कोई ठगनी होगी, जो बेखबर गंजे लोगों पे उलटी कर के भोले और मासूम यात्रियों को फंसाती होगी...
अचानक ही वो बीती रात के वाकये याद करने लगी... जैसे किसी फ़िल्म का ट्रेलर सा चल रहा हो- टूटा फूटा सा कुछ। मेरी शक्ल तो उसे याद नहीं थी, लेकिन "डार्लिंग" वाला प्रकरण ध्यान में था। हद है! कम से कम मुझे एक सॉरी तो मिल ही सकती है!

उसने बीच में पूछा, और क्या हुआ था, और मैंने बचे हुए भाग अपनी बेचारगी से जोड़ के सुना दिए। अचानक से ही वो दुखी हो गई, मुझे बताया की कल ही उसका "ब्रेक अप" हुआ था, इसीलिए उसने पी रखी थी... काफ़ी ख़त्म करके वापस कलपने में जुट गई। लोग देखने लगे थे, जैसे उसके दुखों का कारण मैं ही था। पास का एक जोड़ा भवें चढ़ाए मुझे गुनाहगार बनाने में लगा था। वेट्रेस मुझे आँखें फाड़े देख रही थी- हाँ- हाँ! मैं ही राक्षस हूँ!! पास के एक और "जेंटिलमैन" भी मेरे इसी विचार से सहमती जता रहे थे। और मैं वापस कल रात की तरह फंसी मछली जैसा "फील" कर रहा था- रोती लड़की के आंसू आपको समाज का दुश्मन सा बना देते हैं... उसकी सुन्दरता मुझे मोह लेती, जब वो अपने आपे में होती, लेकिन जब भी वो रोती तो मैं भी उसके दुःख से दुखी सा हो जाता था। हो जो भी, उसके साथ होने का मतलब था लोगों की नज़र में चढ़ना।
खैर, रोने का कार्यक्रम ख़त्म हुआ, और काफ़ी की दूकान के बाहर उसने कहा, "ज़रा १०, ००० वोन देना!" और मैंने भी पट से दे दिए। आपको क्या लगता है, मैं अच्छा इंसान हूँ? जी नहीं! कभी कभी डर अच्छाई जैसा दिख सकता है, है न? इसकी हिम्मत से डर लग रहा था, जाने क्या कर डाले!

जाने से पहले उसने कहा की वो रात को मुझे फ़ोन करेगी। मैं अपने घर सिओल चला आया।

उस शाम उसने मुझे उसी काफ़ी शॉप में आने को कहा- वो मुझे "थैंक यु डिनर" खिलाना चाहती थी। बढ़िया है!

मैं ठीक समय पे वहां पहुँच गया। उसकी सुन्दरता अवाक् कर दे- थोड़ा मेक- अप जैसा कुछ कर रखा था- और कोई और बढ़िया से कपड़े पहन रखे थे। थोडी देर तक अपलक ही देखता रह गया, और फ़िर- जाम का दौर शुरू हुआ। मुझे चिंता ये थी कि कल की तरह ही आज भी ये बेहोश न हो जाए... वरना कल रात जैसा ही...
मैं यहाँ सोच रहा था और इसी बीच उसने अपना गला आधी बोतल सोजू से भिगो लिया। बताना व्यर्थ होगा की सोजू उसे फ़िर से सपनों की दुनिया में, उसके गम से दूर ले गई।

बस? आधी बोतल सोजू! यानी कल भी आधी ही बोतल पी होगी! इस बार इसकी अय्याशी के पैसे मैं नहीं दूँगा। उसका बटुआ निकाला। उसमें पड़ा उसका पहचान पत्र देखा। 16 अप्रैल 1976 का मनुफैक्चर्ड डेट है। मैं पचहत्तर की पैदाईश हूँ। मेरे दोस्त सारे '74 वाले हैं। लेकिन मैं जनवरी में पैदा हुआ था, इसीलिए मैं भी '74 वाली लिस्ट में आता था। लेकिन जो भी हो, ये मुझसे एक साल छोटी है, और तब भी तू कह के संबोधित करती है? थोड़ी इज्ज़त तो करनी चाहिए, है न? शायद मेरी त्वचा से मेरी उम्र का पता न चलता हो!

आज रात मैं फ़िर घोड़ा बनूँगा, बस ये मेरे ऊपर उलटी न करे!

फ़िर से उसी होटल पहुँचा। होटल वाले अपने "परमानेंट" ग्राहक की खातिर में कोई कमी नहीं छोड़ रहे थे। उसकी रिसेप्शनिस्ट ने पहचान लिया और इज्ज़त से अन्दर ले गई, "आज फ़िर अंधेर हो गई?"
"हाँ" हांफते हुए साँस भी बाहर निकल गई और जवाब भी दे दिया।
"ठीक है, जाओ, मैं दवा लेकर आती हूँ..."
कमरे का अकेलापन, और दिल धौंकनी उसकी खूबसूरती के सुर पे अपने ताल सुनाता रहा... तड़प से बेबस हो उसने शराब का सहारा लिया होगा... क्योंकि शराबी जैसी दिखती तो नहीं है... जो भी हो, मुझे उससे हमदर्दी सी हो चली थी....

कल सोमवार होगा, यानी मेरी क्लास होगी। उसकी चिंता करना अब व्यर्थ है, चल खुसरो, सोने चलें। मैंने एक कोने में सिकुड़ कर नींद पूरी की। तब भी एक ही ख्याल बार बार मुझे आ रहा था, मुझे इसका दर्द कम करना ही चाहिए....

नहीं जी, हम दोनों अभी भी अनजान से थोड़े ही ज्यादा हैं, किसी ख्याल को न पालिये- वो मेरी गर्लफ्रेंड नहीं है- अगर आप उस दिन उस डब्बे में नहीं थे तो! वो मेरी पसंद से थोड़ी ज्यादा है, लेकिन वो और मैं मुझे एक ही तस्वीर में नहीं दिखते... वो भी मेरे बारे में इससे ज्यादा नहीं सोचती होगी...

लेकिन फ़िर भी किसी तरह उसकी फांस दूर कर सकूँ, काश ऐसा कर सकूँ....

अब तो तीन महीने हो गए हैं। इन तीन महीनों में कितनी ही मुलाकातें हुईं, और ये तीन महीने तूफ़ान की तरह बीते। मेरी कहानियाँ इसी तूफ़ान की दास्ताँ हैं...

क्रमशः

Tuesday, October 6, 2009

मेरी पगली: भाग 35 का 2

दोस्त और शराब, शाम के सबसे अच्छे साथी हैं... रात के दस बजे ये याद आया की अपनी बुप्युंग वाली मौसी से मिलना है (मौसी लोगों से मिलने में मेरी खासी अरुचि है).... जाना मजबूरी थी, इसीलिए मैंने शिनरिम से सानरिम तक की मेट्रो पकड़ ली और वहाँ से शिन्दोरिम... शिन्दोरिम वाली ट्रेन थोड़ी लेट थी, और उस खाली समय में मैंने देखा- मेरे बगल में एक धुत लड़की पीले टी शर्ट और जींस में खड़ी थी।
अगर बला की नहीं , फ़िर भी मेरे स्टैण्डर्ड से आकर्षक ही थी... वयस कुछ 24- 25 की रही होगी...

मदहोशी में उसकी आँखें कभी अधमुंदी, तो कभी बंद सी होती थीं।
कुछ बुदबुदा रही थी.....
[बुदबुदाने की आवाज़]

अगर ये शराबी न होती तो मेरे सांचे में फिट होती....

खैर, ट्रेन आदतन लेट आई.... और लेट होने के कारण खाली ही थी। डब्बे में मैं और वो, दोनों दो उल्टे दरवाजों पे टिके हुए थे।

इस पूरी ट्रेन में मैंने नज़र दौड़ाई, कोई सो रहा था, कोई स्वेटर बुन रही थी, कोई अखबार पढ़ रहा था.... और मैं? मुझे तो वो क्यूट सी लग रही थी, तो मैं उसे ही देख रहा था। उसका नशे में होना ही मेरी नज़र में उसको खूबसूरत बना रहा था। लोग बाग़ अकसर पोल पर पीठ टिका कर टिकते हैं, ये पोल के सहारे डोल रही थी। बूढ़े टकलू अंकल बाजू में बैठे अखबार चाट रहे थे.... और मैं उसे निहार रहा था....

सब कुछ शांत सा चल रहा था की अचानक ही उसे उबकाई आई और- ओक्क! हड़-हड़-हड़ाक!

अभी तक तो मैं ही देख रहा था, इस आवाज़ के बाद पूरी बोगी ही उसको देखने लगी...

जो सो रहा था, वो आँखें मलता हुआ सा उठ बैठा, स्वेटर वाली आंटी उधर ही देखने लगीं, और सबकी हँसी पिचकारी सी छूट पड़ी। टकले अंकल के सर पे नूडल्स बाल जैसे पड़े हुए थे, और सरकते हुए उनकी तोंद और कन्धों पे गिर रहे थे... दस सेकंड तक तो वो हतप्रभ पड़े रहे... फ़िर साफ़ करने को हुए की दूसरी और तीसरी खेप भी आ गिरी। नूडल्स बिना शोरबे के अच्छे नहीं लगते, तो उस नशेबाज़ ने उनको वो भी "सर्व" कर दिया...

नूडल्स लाल हैं... ह्म्म्म्म... ज़रूर घोंघे वाली नूडल्स खायी है.....

बेचारे अंकल अखबार से ख़ुद की सफाई कर रहे थे.... उनके कपड़े और दिन, दोनों ही बरबाद हो गए थे...
... और मेरी रात बरबाद होने वाली थी।

उल्टी कर के वो जब संतुष्ट हो चुकी तो अधमुंदी आंखों से मेरी ओर देखा, और "डार्लिंग" कह कर बेहोश हो गिरी। मैं हड़बड़ा गया, "कौन- मैं? आप हैं कौ...", लेकिन बेहोश होने वाली तो कब की उलट चुकी थी।

अब सारा डब्बा मेरी ओर देख रहा था.... जिसकी नींद खुल चुक थी, उसकी समझ में ये आ रहा था की इस लड़की का ब्वायफ्रेंड मैं ही हूँ। स्वेटर वाली आंटी मुझे घूर रही थीं। दूर खड़ी एक लड़की आँखें तरेर कर मुझे ही देख रही थी। रात के वक़्त सनग्लास पहने एक लड़की हंस रही थी.... मैं डरा हुआ सब में एक चेहरा खोज रहा था जो ये कहे मैं उसका डार्लिंग नहीं था...

... और अंकल जी चिल्ला रहे थे "तुम! इधर आओ, और साफ़ करो! ये क्या किया?"

मैं कहाँ फंस गया! मेरा दिमाग सुन्न हो रहा था, और डर से मेरी घिग्घी बंद थी...

"म-मैंने नहीं किया..."
"तुमने ही किया है! अपनी गर्लफ्रेंड का ख्याल नहीं रख सकते! साफ़ करते हो या नहीं...." अंकल जी भौके।
डर के मारे मेरे मुंह से निकल गया, "जी सर, सॉरी",
... और मैंने मुझे उस डब्बे के समाज के आगे उस बेहोश लड़की का ब्वायफ्रेंड करार दिया....

डर से थरथराता मैं बेचारा क्या करता, नैपकिन रूमाल मेरे पास होते भी नहीं थे। मजबूरन, अपनी शर्ट उतारी, जो मेरी बहन ने मुझे बर्थडे गिफ्ट दी थी, और उससे उनकी खोपड़ी चमकाने लगा....
"जल्दी करो!"
"ज-जी सर!" रोनी हालत थी.... हाथ जल्दी जल्दी चल रहे थे। जिल्लत और डर, सब एक साथ...

जब चीज़ें सामान्य होने लगीं तो मुझे अपनी नई "डार्लिंग" का ख्याल आया, जो चारों खाने चित पड़ी थी.....

बुप्युंग अगला स्टेशन था। मैंने उसे उठा कर बाहर निकाला (दरअसल, पैरों से घसीट कर निकाला), और उसे पास की एक कुर्सी पर बिठा दिया। लेकिन किसी लड़की को बीच रास्ते में छोड़ कर नहीं जा सकते... उसे जगाने की कोशिश की, लेकिन वो उठी नहीं।
मेरे पास कोई चारा नहीं था। कोई होटल करना होगा। वो हलकी फुलकी ही थी, लेकिन उसे लाद कर पास के होटल तक जाते जाते मैं पसीने में नहा गया....
... मैं भी कहाँ जंजाल में फंस गया था, सब चांस की बात है.... और आप भी शायद यही नहीं करते?... मैं बुरा इंसान नहीं हूँ.... मैं किसी बेहोश और अनजान लड़की को न तो छोड़ सकता हूँ, और न पीठ पर लाद कर घूम ही सकता हूँ....

"तुम्हारी गर्लफ्रेंड तो गई!", रिसेप्शनिस्ट बोली।
"हाँ, कोई कमरा खाली है? अ.. आपके पास होश की कोई दवा है?"
उसे लाद कर कमरे तक गया, और बिस्तर पर लिटा दिया।
उसने उलटी बड़ी सफाई से की थी, ख़ुद के कपड़ों को गन्दा किए बगैर, इसलिए उसके कपड़े बदलने की ज़रूरत नहीं पड़ी।

अब जबकि होटल का रूम मिल ही गया था, तो सोचा की नहा ही लूँ...
मन भर कर नहाया, और जब बाहर निकला तो देखा की वो चैन से सो रही थी। मैंने एक चिट उसके पास छोड़ दी, "मैडम, आप मुझे कॉल कर सकती हैं", नीचे अपना मोबाईल नम्बर मैंने छोड़ दिया, और वहां से चला गया...

आप सोचते होंगे की क्या उसने मुझे कॉल किया? वो बड़ी हिम्मती लड़की थी, मुझसे भी ज्यादा (और उसकी यादें मुझे आज भी काटती हैं)।
और हाँ, अगले दिन उसका फोन आया....

क्रमशः

Sunday, October 4, 2009

मेरी पगली: भाग 35 का 1

ये कथा मैंने कोरियाई भाषा में देखी थी, कुछ साल भर पहले, पहली बार। अब तक कुछ डेढ़ - दो सौ बार देख चुका हूँ, किंतु विस्मित होने से शायद स्वयं को न रोक सका हूँ। कुछ दिनों पहले, मुझे यह पता चला की अंतरजाल पर इसका मूल विस्तार है। वह किसी हो- सिक किम का लिखा है, जिसकी यह आपबीती है। इस कथा पर कोरियाई, अंग्रेज़ी, और हिन्दी में चलचित्र बन चुके हैं। अतएव, मेरा कुछ भी लिखना शायद कहानी को संकीर्ण बना दे। एक प्रयास है, उम्मीद है खरा उतरेगा।

सादर धन्यवाद्-
हो- सिक किम (यद्यपि उनका विछोह पीड़ादायी है, उसका समुचित इलाज समय के पास ही है) एवं bumfromkorea, जिनके अंग्रेज़ी अनुवाद के बिना मेरा कुछ भी समझ पाना अगले कुछ 5 वर्षों तक सम्भव न होता।

मैं इस कथा का एक प्रस्तोता मात्र हूँ।
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पुनःश्च -
असली कथा कोरियाई में इस वेब पते पर देखी जा सकती हैइसका अंग्रेज़ी अनुवाद यहाँ उपलब्ध है
bumfromkorea की रचना।
हो- सिक किम की आप- बीती का कोरियाई संस्करण
कोरियाई चलचित्र- Yeopgijeogin geunyeo.
अंग्रेज़ी चलचित्र- My Sassy Girl.
हिन्दी फ़िल्म- अगली और पगली