Friday, January 14, 2011

केंचुल

अम्बुज के दंतमंजन का नाम अम्बुजा नहीं था, किन्तु उसके जीवन के दो ही ध्येय मेरी समझ आते थे - स्वयं को एक दंगाग्रस्त जिले जहानाबाद का निवासी साबित करना, और स्वयं को ब्राह्मण घोषित करना।

इस कहानी का नायक अम्बुज, और खलनायक राका, पूरी तरह से मेरी कल्पना कि पैदावार हैं। असली राका और अम्बुज से इनका दूर दूर तक कोई नाता नहीं है, और ये कहानी अम्बुज के पहले ध्येय से सम्बंधित है।

राका उस दिन बड़ा खुश सा दिख रहा था। अम्बुज की जहानाबाद की शौर्य गाथाएं हम सभी को अब याद हो चली थीं, की कैसे हाथी उसके द्वार पर झूमा करता था, और कैसे उसके बड़े पापा घोड़े पे दुनाली लेकर घूमा करते थे। और कैसे उसके बीघे के बीघे खेत नक्सल वालों ने हड़प लिए। अम्बुज की नसों में क्षत्रियों का लावा और ब्राह्मणों का तेज रहा होगा, ऐसा विश्वास मुझे हो चला था। लेकिन ज़िन्दगी आपके हर विश्वास को मिथ्या साबित करने पे आमादा होती है।

आर्य पुत्र राका की प्रसन्नता का सबब ये था-

पिछली शाम को राका अपने निवास नेहरु छात्रावास से पटेल छात्रावास तक गया, ताकि अम्बुज से मिल सके। वहीँ दोनों का कार्यक्रम कुछ ऐसा बना की आज़ाद हाल के सामने से हो कर टेक मार्केट तक जाने का मन बन गया।

वह गली पेड़ों से भरी हुयी थी, और शाम के धुंधलके में और भी धुंधली दिखती थी- ऐसा मेरे चश्मा ग्रस्त मित्र- राका और अम्बुज, दोनों का कथन रहा था।
बातों का केंद्र बिंदु ज़रूर ही कोई ऐसी बात रही होगी जिसमें अम्बुजवा को अपना पराक्रम दिखाने की इच्छा हुयी होगी। अम्बुज उवाच रहा था- मेरे को कम मत समझना- मय गाँव में बहुत सांप घुमा घुमा के फेंका हूँ, यूँ यूँ कर के। सड़क पर चलते हुए अम्बुज अपने दोनों हाथों से कपड़े घुमा कर धोते धोबी जैसे इशारे कर के समझा रहा था। तभी सड़क पे कुछ चमकती काले रंग की रस्सी सी दिखी। कहना मुश्किल हो सकता है की सांप ही रहा हो, लेकिन इंसान का डर उसे सच्चाई नहीं देखने देता, ख़ास तौर पर तब जब आँखों पर मर्तबान के शीशे के नयन ज्योत लालटेन चिपके हों। मनो अम्बुजवा को सांप सूंघ गया- कूद कर राका के दायें बाजू पकड़े काँपता रहा- "सांप? क- कहाँ है सांप!"
खीसें निपोरता अम्बुज सुन रहा था। चश्माधारी लाल बन्दर अपनी दुग्धधवल श्वेत दंतपंक्ति दिखाते हुए इतना ही बोल सका- "अईसा नहीं है... अरे, ऊ सांप नहीं, केंचुआ था जो हम खेत में नचाते थे। "