Friday, October 16, 2009

मेरी पगली: भाग 35 का 3

अगर आप सोचें तो आप भी उसकी बहादुरी की दाद दिए बिना न रहेंगे। वरना सोचिये, आप हों शराब के नशे में धुत, किसी अजनबी के संग होटल में रात बिताने के बावजूद आप उसे कॉल शायद ही करें।

तो उठते ही उसने मुझे फ़ोन मिलाया... शायद उसे भी सब कुछ पूरी तरह याद नहीं था। अच्छा है, कभी कभी बुरी याददाश्त ही अच्छी।

मैं: हेलो?
"कौन है तू?" उसने दहाड़ मारी (मैं उतनी देर से उसकी बहादुरी के बारे में बता रहा था न, क्यों?)
मैं: कौन? मैं समझा नहीं?
"तूने अपना नम्बर छोड़ा था, मैंने इसीलिए कॉल किया। यहाँ आ। अभी!"
मैं डरता हुआ होटल पहुँचा। वो लड़की बाहर ही इंतज़ार कर रही थी। थोड़ा डर सा लग रहा था, मानो उसको कल रात का याद रहा तो? नहीं होगा याद! पी के आउट थी!! और मान लो जो याद रह ही गया तो...?
और तब..."सूअर! तुमने मेरे साथ क्या किया है? कमीने! रुक जा! मैं पुलिस बुलाऊंगी..."

"ज़रा सुनिए?", बोल फूटे।
"अच्छा! तो वो तू है?" [तू! तू तड़ाक से ही शुरू की है, बदज़बान]
"ह- हाँ, मैं ही हूँ, लेकिन आप तू करके कैस..."
"अच्छा अच्छा, किसी होटल ले चलो, मैं भूखी हूँ।"
"जी बहुत बढ़िया।" हाँ के अलावा हाँ ही एक और चारा था, मैं बेचारा था।

नज़दीक के एक रेस्तरां में जा के दोनों ने भोजन मंगाया। रात भर की पिलाई के बाद भी उसका मुंह अपनी रफ्तार से चल रहा था.... चमत्कार! सरपट अपनी खाना भकोस गई, और मेरी थाली में उंगली दिखा के बोली "तू खायेगा ये? इधर ला!" और जवाब की परवा कहाँ थी उसे... मुझे आज तक कभी भूख ही कहाँ लगी है... मैं फोटोसिन्थेसिस से अपना भोजन स्वयं बनाता हूँ!
एकदम तीर सा- "... बिल भर दे!" - जी मैडम!
बुप्युंग स्टेशन के पास एक कैफे में ले गई। ज़रूर आस पास ही इसका घर होगा... मुझसे पूछना क्या ज़रूरी है, दो काफ़ी आर्डर कर दी।
"बिल भर देना"
निर्लज्ज! और नहीं, तो ये ज़रूर कोई ठगनी होगी, जो बेखबर गंजे लोगों पे उलटी कर के भोले और मासूम यात्रियों को फंसाती होगी...
अचानक ही वो बीती रात के वाकये याद करने लगी... जैसे किसी फ़िल्म का ट्रेलर सा चल रहा हो- टूटा फूटा सा कुछ। मेरी शक्ल तो उसे याद नहीं थी, लेकिन "डार्लिंग" वाला प्रकरण ध्यान में था। हद है! कम से कम मुझे एक सॉरी तो मिल ही सकती है!

उसने बीच में पूछा, और क्या हुआ था, और मैंने बचे हुए भाग अपनी बेचारगी से जोड़ के सुना दिए। अचानक से ही वो दुखी हो गई, मुझे बताया की कल ही उसका "ब्रेक अप" हुआ था, इसीलिए उसने पी रखी थी... काफ़ी ख़त्म करके वापस कलपने में जुट गई। लोग देखने लगे थे, जैसे उसके दुखों का कारण मैं ही था। पास का एक जोड़ा भवें चढ़ाए मुझे गुनाहगार बनाने में लगा था। वेट्रेस मुझे आँखें फाड़े देख रही थी- हाँ- हाँ! मैं ही राक्षस हूँ!! पास के एक और "जेंटिलमैन" भी मेरे इसी विचार से सहमती जता रहे थे। और मैं वापस कल रात की तरह फंसी मछली जैसा "फील" कर रहा था- रोती लड़की के आंसू आपको समाज का दुश्मन सा बना देते हैं... उसकी सुन्दरता मुझे मोह लेती, जब वो अपने आपे में होती, लेकिन जब भी वो रोती तो मैं भी उसके दुःख से दुखी सा हो जाता था। हो जो भी, उसके साथ होने का मतलब था लोगों की नज़र में चढ़ना।
खैर, रोने का कार्यक्रम ख़त्म हुआ, और काफ़ी की दूकान के बाहर उसने कहा, "ज़रा १०, ००० वोन देना!" और मैंने भी पट से दे दिए। आपको क्या लगता है, मैं अच्छा इंसान हूँ? जी नहीं! कभी कभी डर अच्छाई जैसा दिख सकता है, है न? इसकी हिम्मत से डर लग रहा था, जाने क्या कर डाले!

जाने से पहले उसने कहा की वो रात को मुझे फ़ोन करेगी। मैं अपने घर सिओल चला आया।

उस शाम उसने मुझे उसी काफ़ी शॉप में आने को कहा- वो मुझे "थैंक यु डिनर" खिलाना चाहती थी। बढ़िया है!

मैं ठीक समय पे वहां पहुँच गया। उसकी सुन्दरता अवाक् कर दे- थोड़ा मेक- अप जैसा कुछ कर रखा था- और कोई और बढ़िया से कपड़े पहन रखे थे। थोडी देर तक अपलक ही देखता रह गया, और फ़िर- जाम का दौर शुरू हुआ। मुझे चिंता ये थी कि कल की तरह ही आज भी ये बेहोश न हो जाए... वरना कल रात जैसा ही...
मैं यहाँ सोच रहा था और इसी बीच उसने अपना गला आधी बोतल सोजू से भिगो लिया। बताना व्यर्थ होगा की सोजू उसे फ़िर से सपनों की दुनिया में, उसके गम से दूर ले गई।

बस? आधी बोतल सोजू! यानी कल भी आधी ही बोतल पी होगी! इस बार इसकी अय्याशी के पैसे मैं नहीं दूँगा। उसका बटुआ निकाला। उसमें पड़ा उसका पहचान पत्र देखा। 16 अप्रैल 1976 का मनुफैक्चर्ड डेट है। मैं पचहत्तर की पैदाईश हूँ। मेरे दोस्त सारे '74 वाले हैं। लेकिन मैं जनवरी में पैदा हुआ था, इसीलिए मैं भी '74 वाली लिस्ट में आता था। लेकिन जो भी हो, ये मुझसे एक साल छोटी है, और तब भी तू कह के संबोधित करती है? थोड़ी इज्ज़त तो करनी चाहिए, है न? शायद मेरी त्वचा से मेरी उम्र का पता न चलता हो!

आज रात मैं फ़िर घोड़ा बनूँगा, बस ये मेरे ऊपर उलटी न करे!

फ़िर से उसी होटल पहुँचा। होटल वाले अपने "परमानेंट" ग्राहक की खातिर में कोई कमी नहीं छोड़ रहे थे। उसकी रिसेप्शनिस्ट ने पहचान लिया और इज्ज़त से अन्दर ले गई, "आज फ़िर अंधेर हो गई?"
"हाँ" हांफते हुए साँस भी बाहर निकल गई और जवाब भी दे दिया।
"ठीक है, जाओ, मैं दवा लेकर आती हूँ..."
कमरे का अकेलापन, और दिल धौंकनी उसकी खूबसूरती के सुर पे अपने ताल सुनाता रहा... तड़प से बेबस हो उसने शराब का सहारा लिया होगा... क्योंकि शराबी जैसी दिखती तो नहीं है... जो भी हो, मुझे उससे हमदर्दी सी हो चली थी....

कल सोमवार होगा, यानी मेरी क्लास होगी। उसकी चिंता करना अब व्यर्थ है, चल खुसरो, सोने चलें। मैंने एक कोने में सिकुड़ कर नींद पूरी की। तब भी एक ही ख्याल बार बार मुझे आ रहा था, मुझे इसका दर्द कम करना ही चाहिए....

नहीं जी, हम दोनों अभी भी अनजान से थोड़े ही ज्यादा हैं, किसी ख्याल को न पालिये- वो मेरी गर्लफ्रेंड नहीं है- अगर आप उस दिन उस डब्बे में नहीं थे तो! वो मेरी पसंद से थोड़ी ज्यादा है, लेकिन वो और मैं मुझे एक ही तस्वीर में नहीं दिखते... वो भी मेरे बारे में इससे ज्यादा नहीं सोचती होगी...

लेकिन फ़िर भी किसी तरह उसकी फांस दूर कर सकूँ, काश ऐसा कर सकूँ....

अब तो तीन महीने हो गए हैं। इन तीन महीनों में कितनी ही मुलाकातें हुईं, और ये तीन महीने तूफ़ान की तरह बीते। मेरी कहानियाँ इसी तूफ़ान की दास्ताँ हैं...

क्रमशः

4 comments:

  1. I like it. I think it is a good idea to have 35 episodes. Good job! Very well transliterated (is that the word for this?)

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  2. :) kahin translation aur kahin transliteration lagaye hain. kahani shayad aur achhi ho sakti thi.

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  3. it'll be out, i presume, by tomorrow!

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